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करना चाहते हैं तो मादा की कोशिका का केन्द्रक मादा के केन्द्रक-विहीन अण्डाणु में प्रतिस्थापित करना होगा। जैन कर्म-सिद्धान्त तथा मानव क्लोनिंग
जैन धर्मानुसार जीवन की विभिन्न क्रियाओं, रचनाओं तथा घटनाओं का नियन्त्रण कर्मों के द्वारा होता है। विभिन्न जीवों को मिलने वाले अलग-अलग शरीर, आयु, गोत्र, सुख-दुःख आदि का निर्धारण विभिन्न कर्म करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं की जीवन का पूर्ण संचालन कर्मों के द्वारा ही होता है। वस्तुतः कर्म तो मात्र परिस्थितियों का निर्माण करते हैं किन्तु उन कर्मों के अनुसार आचरण करना या नहीं करना, इसके लिए जीव स्वतन्त्र है। आत्मा कर्मों के कारागार में बंधी अवश्य है परन्तु वह अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों के फल में परिवर्तन कर सकती है। चेतना की स्वतन्त्र शक्ति के द्वारा कर्मों पर विजय पाना ही जिन-धर्म है।
प्रश्न उठता है कि जब वैज्ञानिक ही मानव तथा अन्य जीवों के लिए विभिन्न गुणों का निर्धारण करने लगे हैं तो जैन कर्म-सिद्धान्त कहाँ लागू होता है? शरीर में किसी प्रकार का परिवर्तन करना क्या कर्म-सिद्धान्त को चुनौती नहीं है? इस विषय में यह कहना उचित होगा कि एक अपराधी किसी व्यक्ति का अंग-भंग कर देता है या कोई व्यक्ति शल्यक्रिया के द्वारा अंग परिवर्तित करवा लेता है अथवा कोई मानसिक उपचार के द्वारा अपराधी प्रवृत्ति से छुटकारा पा लेता है या फिर जहर / दुर्घटना से असमय में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो यह सब कर्म-सिद्धान्त के लिए चुनौती नहीं माने जा सकते। यही कार्य अब और भी व्यवस्थित रूप से परन्तु अप्राकृतिक, अनैतिक रूप से क्लोनिंग प्रक्रिया के द्वारा वैज्ञानिक कर रहे हैं। एक समान मनचाहे जीवों को पैदा करने की बात भी बिल्कुल अधूरी है। एक जैसी शक्ल सूरत शरीर बन जाने का यह अर्थ नहीं होता कि उसका व्यक्तित्व और व्यवहार भी एक जैसा हो अर्थात् यह जरूरी नहीं कि अपराधी का क्लोन अपराधी तथा वैज्ञानिक का क्लोन वैज्ञानिक ही बने। लोगों को लगता है कि क्लोनिंग के द्वारा किसी भी जीव को वैज्ञानिक सुनिश्चित रीति से बना सकते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। पहली क्लोन भेड़ का निर्माण इस सम्बन्ध में किए गए 277 परीक्षणों की असफलता के बाद हुआ था तथा मानव क्लोनिंग के 100 में से 1 या 2 मामलों में ही सफलता मिली है।
जो जीव कई बार की असफलताओं के बाद बनते भी हैं तो वह दरअसल वैज्ञानिकों के द्वारा नहीं बनते हैं। वैज्ञानिक तो मात्र एक निश्चित शरीर रचना के अनुकूल
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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