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________________ जैन संस्कृति की मूल अवधारणा जैन संस्कृति और अध्यात्म संस्कृति एक आन्तरिक तत्त्व है, जो व्यक्ति और समाज के आत्मिकसंस्कारों पर केन्द्रित रहता है । सभ्यता उसका बाह्य तत्त्व है, जो देश और काल के अनुसार परिवर्तित होता रहता है । यह परिवर्तन संस्कृति को प्रभावित भले ही कर दे पर उसमें आमूल परिवर्तन करने की क्षमता नहीं रहती । इसलिए संस्कृति की परिधि काफी व्यापक होती है । उसमें व्यक्ति का आचार-विचार, जीवन-मूल्य, नैतिकता, धर्म, साहित्य, कला, शिक्षा, दर्शन आदि सभी तत्त्वों का समावेश होता है । इन तत्त्वों को हम साधारण तौर पर सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना के अन्तर्गत निविष्ट कर सकते हैं । प्रोफेसर भागचन्द जैन 'भास्कर' व्यक्ति समाजनिष्ठ होने के बावजूद आत्मनिष्ठ है पर सन्देह और तर्क की गहनता ने, बौद्धिक व्यायाम की सघनता ने उसकी इस आत्मनिष्ठता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है और आत्मानुभूति की शक्ति को पीछे ढकेल दिया है । वह कमजोरियों का पिण्ड है, इस तथ्य को जानते हुए भी अहङ्कार के कारण वह सार्वजनिक रूप से उसे स्वीकार नहीं कर पाता । यह अस्वीकृति उसका स्वभाव बन जाता है । फलतः क्रोधादि कषायों के आवेश और आवेग को वह अनियन्त्रित अवस्था में पाले रहता है । अध्यात्म एक सतत चिन्तन की प्रक्रिया है, अन्तश्चेतना का निष्यन्द है । वह एक ऐसा संगीत स्वर है, जो एकनिष्ठ होने पर ही सुनाई देता है और स्वानुभव की दुनिया में व्यक्ति को प्रवेश करा देता है । स्वयं ही निष्पक्ष चिन्तन और ध्यान के माध्यम से वह अपनी कमजोरियों को बाहर फेंकने के लिए आतुर हो जाता है। उसका हृदय आत्मसुधार की ओर कदम बढ़ाने के तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 41 www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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