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________________ लिए एक सशक्त माध्यम की खोज में निकल पड़ता है- और यह माध्यम है-धर्म और अध्यात्म। पशु और मनुष्य को पृथक् करने वाला तत्त्व है-विवेक। विवेक न होने से पशु आज भी अपने आदिम जगत् में है जबकि मनुष्य ने विवेक के माध्यम से ही अपनी प्राणशक्ति का विकास किया, विज्ञान की चेतना ने उसे नये आयाम दिये और प्रस्फुटित किये उसके सारे शक्ति-क्षेत्र जिनमें वह विकास के नये संकल्प, उपाय और साधन की खोज में निरन्तर लगा रहता है। उसकी इस निरन्तरता का सूत्र कभी भंग नहीं हो पाता। यह प्राणधारा प्रयत्न साध्य है। चेतना की सक्रियता और मनोबल की सक्षमता से वह उपलब्ध की जा सकती है। शरीर-बल और वचन-बल से उसे क्रियाशक्ति मिल जाती है। यह क्रियाशक्ति व्यक्ति की संवेदना और चेतना के विकास-बोध की फलश्रुति है। संवेदना पर नियन्त्रण कर ज्ञान का विकास करना उसकी विशेषता है। अन्तर्मुखी होकर वह यथार्थ की साधना करता है, ध्यान करता है और प्रतिबिम्ब से परे ज्ञान का प्रयत्न करता है। इसी प्रयत्न में अहिंसा और संयम उसका साथ देते हैं। प्रज्ञा और आत्म-साक्षात्कार से उसकी साधना का क्षेत्र बढ़ जाता है। तर्क और बुद्धि के सोपान से ही अनुभव की चेतना में वह प्रवेश कर जाता है। हमारी स्वानुभूति की चेतना यह कहती है कि हमारा आचार और व्यवहार दूसरों के प्रति परिष्कृत हो। उसमें क्रूरता, विषमता और अहंमन्यता न हो, धोखाघड़ी न हो। हमारी मन:स्थिति यदि समता से भरे आचरण और व्यवहार से भर जाये तो अशान्ति स्वतः अदृश्य हो जाती है, संस्कार परिवर्तित हो जाते हैं, स्वभाव रूपान्तरित हो जाता है और प्रवाहित होने लगती है सामुदायिक चेतना की वह प्रशस्त धारा जिसमें सहिष्णुता, करुणा, सरलता और क्षमाशीलता जैसे अध्यात्मनिष्ठ तत्त्व सदैव जागृत रहते हैं। ये तत्त्व व्यक्ति की अध्यात्मनिष्ठा के साथ जुड़ जाते हैं जहां पुरुषार्थ जाग जाता है, वहां पूर्ण ज्योति पाने के लिए और सृजनात्मक चेतना स्फुरित हो जाती है विजातीय तत्त्वों को दूर करने के लिए। साधक इस साध्य की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन से स्वयं को नियन्त्रित करता है, अवचेतन मन में पड़े हुए संस्कारों और वासनाओं को विशुद्ध करता है और सारी क्षमताओं को अर्जितकर मानसिक असंतुलन को दूर करता है निराग्रही वृत्ति से, संतुलित विशुद्ध शाकाहार से और निष्पक्ष वीतरागता के चिन्तन से। जैन संस्कृति ऐसा ही चिन्तनशील भरा वातावरण प्रस्तुत करती है साधक के समक्ष जो उसे सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना की ओर मोड़ देता है। यह उसका एक विशिष्ट अवदान है। 42 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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