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________________ श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख रूप से श्रमण और ब्राह्मण परम्परायें पल्लवित होती रही हैं। दोनों परम्परायें पृथक्-पृथक् होते हुए भी परस्पर में परिपूरक हैं, अनुस्यूत हैं। प्राचीनतम वैदिक साहित्य में समागत वातरशना श्रमण, व्रात्य, अर्हत्, आहेत, ऋषभ, असुर, ऊर्ध्वमन्थी, केशी, पुण्यशील, यति, मुनि आदि शब्द जैन संस्कृति के प्रभावशाली अस्तित्व की सूचना देते हैं और मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोहानीपुर में प्राप्त योगी ऋषभदेव की कायोत्सर्गी मूर्तियां उसकी सांस्कृतिक विरासत की कथा कहती है। ___श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियां वस्तुतः हमारी मनोवृत्ति की परिचायिका है, इसलिए वे परस्पर प्रभावित भी हुई हैं, उनमें आदान-प्रदान भी हुआ है। समता और पुरुषार्थशीलता पर प्रतिष्ठित श्रमणधारा के अध्यात्मप्रधान निवृत्तिमार्गीय चिन्तन से ब्राह्मणधारा प्रभावित हई हैं और ब्राह्मणधारा के कर्मकाण्डीय तत्त्व ने श्रमणधारा को प्रभावित किया है। उपनिषदीय चिन्तन में परिदृष्ट परिवर्तन निश्चित रूप से श्रमणधारा के प्रभाव का परिणाम है और इसी तरह श्रमणधारा में स्वीकृत देवी-देवता, यक्ष-यक्षिणी समुदाय ब्राह्मणधारा से आयातित हुआ है। यहीं यह संकेत करना आवश्यक नहीं है कि श्रमणधारा का मूल प्रवर्तन जैन संस्कृति से हुआ है। बौद्ध संस्कृति तो छठी शताब्दी ई. पू. की देन है। सहस्पतिसहस्र प्राचीन इस जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को दार्शनिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में अत्यन्त समृद्ध किया है। जैनाचार्यों ने अपने चिन्तन में जो वैज्ञानिकता, प्रगतिशीलता, सार्वजनीनता, एकात्मकता, जाति-वर्गहीनता और वैयक्तिक स्वतन्त्रता का प्रस्फुटन किया है, वह नितान्त अनूठी है। यहां हम उसके अनूठेपन को दो भागों में विभाजित कर उसके अवदान पर चिन्तन करेंगे-सांस्कृतिक अवदान और साहित्यिक अवदान। इन दानों अवदानों में श्रमण जैन संस्कृति में समतावाद, शमतावाद और पुरुषार्थवाद को आत्मसात करने का साहस दिखाई देता है और वर्गभेद, वर्णभेद, उपनिवेशवाद आदि जैसे असमानवादी तत्त्वों से कोसों दूर रखकर व्यक्ति और समाज को स्वातन्त्र्य और स्वावलम्बन की ओर कदम पहुंचाता नजर आता है। जैन संस्कृति ने उपादान और निमित्त के माध्यम से तत्कालीन प्रचलित दार्शनिक मत-मतान्तरों में जो सामञ्जस्य प्रस्थापित करने का अथक प्रयत्न किया है वह निश्चित ही स्तुत्य है। इस पृष्ठभूमि में परिपूरक होते हुए भी ब्राह्मण और श्रमण सांस्कृतिक विचारधाराओं के बीच एक विभेदक रेखा इस प्रकार खीची जा सकती है कि ब्राह्मण संस्कृति में 'ब्रह्मा' ने विस्तार किया, उसने एक से विविध रूप लिये, अवतार धारण किये, स्वप्न और माया तुलसी प्रज्ञा जनवरी ---मार्च, 2006 - 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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