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संयमी साधक या साधर्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी
भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चरण, आमरण अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। .
इनके पालने से दैनिक जीवन में आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन हो जाता है। परिसीमन के निम्न सूत्र हैं(क) इच्छा परिमाण
__ महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर आवश्यकताओं को मर्यादित कर दिया। सिद्धान्तानुसार समतावादी समाज-रचना में यह आवश्यक हो गया कि आवश्यकता से
अधिक वस्तुओं का संचय न करें। मनुष्य की इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं और लाभ के साथ ही लोभ के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है, क्योंकि चाँदी-सोने के कैलाश पर्वत भी व्यक्ति को प्राप्त हो जाएँ, तब भी उसकी इच्छा पूरी नहीं हो सकतीं। अत: इच्छा का नियमन आवश्यक है। इस दृष्टि से श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाण या इच्छा परिमाण व्रत की व्यवस्था की गयी है। अतः मर्यादा से व्यक्ति अनावश्यक संग्रह और शोषण की प्रवृत्ति से बचता है। सांसारिक पदार्थों का परिसीमन जीवन-निर्वाह को ध्यान में रखते हुए किया गया है, वे हैं- 1. क्षेत्र (खेत आदि भूमि), 2. हिरण्य (चाँदी), 3. वास्तु (निवास योग्य स्थान), 4. सुवर्ण (सोना), 5. धन (अन्य मूल्यवान पदार्थ) (ढले हुए या घी, गुड़ आदि), 6 धान्य (गेहूँ, चावल, तिल आदि), 7. द्विपद (दो पैर वाले), 8 चतुष्पद (चार पैर वाले), 9. कुप्य (वस्त्र, पात्र, औषधि आदि)। (ख) दिक्परिमाण व्रत
भगवान् महावीर का दूसरा सूत्र है- दिक्परिमाणव्रत। विभिन्न दिशाओं में आनेजाने के सम्बन्ध में मर्यादा या निश्चय करना कि अमुक दिशा में इतनी दूरी से अधिक नहीं जाऊँगा। इस प्रकार की मर्यादा से वृत्तियों के संकोच के साथ-साथ मन की चंचलता समाप्त होती है तथा अनावश्यक लाभ अथवा संग्रह के अवसरों पर स्वैच्छिक रोक लगती है। क्षेत्र सीमा का अतिक्रमण करना अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है। अतः इस व्रत के पालन करने से दूसरे के अधिकार क्षेत्र में उपनिवेश बसा कर लाभ कमाने की या शोषण करने की वृत्ति से बचाव होता है । इस प्रकार के व्रतों से हम अपनी
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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