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स्वप्नः अर्थ-मीमांसा
सामान्यतया निद्रित अवस्था में जो घटना दिखलाई देती है, वह स्वप्न कहलाती है। स्वप्न प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी भावनाओं एवं वासनाओं के अनुरूप रची हुई एक विशेष सृष्टि है। जैन दर्शन के अनुसार स्वप्न द्रव्य मन का पौद्गलिक परिणमन है। केवलज्ञानी स्वप्न नहीं देखते क्योंकि उनके द्रव्य मन की प्रक्रिया नहीं होती। स्वप्न केवल समनस्क व्यक्ति ही देख सकते हैं।
भगवती सूत्र की टीका के अनुसार सोते समय विकल्प के अनुरूप जो अनुभव होता है, उसे स्वप्न कहा जाता है। स्थानांग टीका में निद्रा-विकार से जो दृश्य दिखलाई पड़ते हैं, उसे स्वप्न कहा गया है। योग वाशिष्ठ के अनुसार बाह्य ज्ञानेन्द्रियों की क्रिया के अभाव में अंदर के क्षोभ से जो ज्ञान होता है, उस अवस्था का नाम स्वप्न है।
आक्रान्तेन्द्रियछिद्रो, यतः क्षुब्धोऽन्तरेव सः। संविदानुभवत्याशु, स स्वप्न इति कथ्यते॥
अरस्तू के अनुसार सपने किसी भी पराभौतिक अस्तित्वों की देन नहीं है। ये मानवीय आत्मा के नियमों के अनुसार संचालित होते हैं। एडलर का मंतव्य है कि स्वप्न का जन्म हमारे दैनिक जीवन की उलझी समस्याओं से होता है। ये हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को साकार करते हैं। जुंग का मानना है कि स्वप्नों का कार्य मनोवैज्ञानिक संतुलन कायम करना है। स्वप्नों के बारे में फ्रायड का चिंतन बहुचर्चित एवं समालोच्य रहा। उसके अनुसार स्वप्न वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अचेतन मन की दमित इच्छाएं अपना रूप बदलकर चेतन मन में प्रवेश करती हैं और स्वप्न में चित्र रूप में दिखलाई पड़ती हैं। (Dream is a process through which unconscious wishes make entrance into the consciousness in a disguised form. स्वप्नों के प्रकार
सामान्यतया स्वप्नों की संख्या का निर्धारण नहीं किया जा सकता किन्तु वैशिष्ट्य के आधार पर भगवती सूत्र में पांच प्रकार के स्वप्नों का उल्लेख मिलता हैं
1. यथातथ्य :- स्वप्न में जो कुछ दिखाई दे, जागने पर भी उसकदेखना तथा उसके अनुसार ही शुभाशुभ फल की प्राप्ति होना यथातथ्य स्वप्न है। टीकाकार ने इसके दो भेद किए हैं- (1) दृष्टार्थ विसंवादी, (2) फलाविसंवादी। स्वप्न में देखे दृश्य को जागृत अवस्था में देखना। जैसे स्वप्न में किसी ने हाथ में फल दिया, वैसा ही जागृत
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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