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सम्पदा बढ़ जाती है तब वह काव्य की भाषा भी बनने लगती है । प्राकृत में जो आगम ग्रन्थ, व्याख्या साहित्य, कथा एवं चरित्रग्रन्थ आदि लिखे गये, उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है । काव्य की प्रायः सभी विधाओं - महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य आदि को प्राकृत भाषा ने समृद्ध किया है ।
मुक्तक परम्परा का प्राकृत काल ईसा की प्रथम शताब्दी से आरम्भ होता है और उसका महाकवि हाल की 'गाहासतसई' जो मुक्तक काव्य जगत का सबसे महान् एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कोष -ग्रन्थ है, इसकी प्रत्येक गाथा अपने आप में स्वच्छंद है। अपनी अर्थ - प्रतीति के लिए वह किसी अन्य गाथा पर अवलम्बित नहीं है। ऐसे मुक्त पद्यों का काव्यशास्त्रीय नाम 'मुक्तक' है। मुक्तक वह पद है जो स्वतः निरपेक्ष रहते हुए पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति में समर्थ हो, काव्य के लिए अपेक्षित चमत्कृति इत्यादि विशेषताओं से मुक्त हो, अपनी काव्यगत विशेषताओं के कारण जो आनन्द देने में समर्थ हो, जिसका गुम्फन अत्यन्त हो और जिसका परिशीलन ब्रह्मानन्द-सहोदर रस की चर्वणा के प्रभाव से हृदय की मुक्तावस्था को प्रदान करने वाला हो । काव्य के संदर्भ में 'मुक्तक' की यही परिभाषा है ।
हमारी दृष्टि से मुक्तक ऐसी रचना को कहते हैं जिसके पद्य या छंद परस्पर निरपेक्ष हों एवं उसमें पौर्वापर्य संबंध का अभाव हो । इसमें रस का पूर्ण प्रवाह हो अर्थात् मुक्तक काव्यरस से आपूर्ण हो । इसमें उक्ति वैचित्र्य या अभिव्यक्ति सौन्दर्य का विधान किया गया हो। इसमें कार्य का आत्मानुभाव व्यक्त होता है अर्थात् जब कवि अपनी विशेष क्षण की अनुभूति को अत्यन्त तीव्रता के साथ अभिव्यक्त करता है तो उसमें आत्मनिष्ठा का समावेश हो जाता है। ऐसी ही आत्मभिव्यंजक रचना मुक्तक काव्य है । मुक्तक में भाव वैभव एवं कलात्मक संपत्ति का समग्र वेग रहता है। इसमें रस परिमाप के अतिरिक्त कवि का व्यास चमत्कार प्रदर्शन की ओर भी रहता है । कवि रसात्मक आवेग से भरकर हृदयगत भावों की व्यंजना करता है । अतः उसमें पाठकों के मनोवगों को तरंगित करने की अधिक शक्ति होती है । मुक्तककार अपनी रचना में चातुर्य का प्रदर्शन करके पाठकों के हृदय में रस की धारा प्रवाहित कराने की अपेक्षा छोटे-छोटे छीटें ही उठाने में अपना कर्तव्य मान लेता है ।
पालि और प्राकृत भाषा में काव्य-रचना प्राचीन समय से ही होती रही है । आगम ग्रन्थों एवं शिलालेखों में अनेक काव्य-तत्त्वों का प्रयोग हुआ है । प्राकृत भाषा के कथासाहित्य एवं चरित्र ग्रंथों में भी कई काव्यात्मक रचनाएँ भी उपलब्ध हैं । पादलिप्त की तरंगवती-कथा तथा विमलसूरि के पउमचरियं में कई काव्यचित्र पाठक का ध्यान
तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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