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1. साथ जन्मे हुए, 2. साथ बढ़े हुए, 3. साथ-साथ धूल में खेले हुए। यह तीन प्रकार के मित्र-सरिसवया श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। ___जो धान्य-सरिसवया (सरसों) हैं, वे दो प्रकार के हैं-शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । उनमें जो अशस्त्रपरिणत हैं अर्थात् जिनको अचित्त करने के लिए अग्नि आदि शस्त्रों का प्रयोग नहीं किया गया है, अतएव जो अचित्त नहीं हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं।
जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं - प्रासुक और अप्रासुक। हे शुक! अप्रासुक भक्ष्य नहीं हैं। उनमें जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के हैं -याचित (याचना किये हुए) और अयाचित (नहीं याचना किये हुए)। उनमें जो अयाचित हैं, वे अभक्ष्य हैं। उनमें जो याचित हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा-एषणीय और अनेषणीय। उनमें जो अनेषणीय हैं, वे अभक्ष्य हैं।
जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के हैं- लब्ध (प्राप्त) और अलब्ध (अप्राप्त)। उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं । जो लब्ध हैं वे निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं।
'हे शुक! इस अभिप्राय से कहा है कि सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।'
ज्ञाताधर्मकथा के उक्त दृष्टांत में यद्यपि श्रमण के भक्ष्य और अभक्ष्य का विवेचन किया गया है किन्तु विषय के आलोक में यहाँ यह विशेष रूप से कहा जा सकता है कि अभक्ष्य का त्याग अनावश्यक संग्रह एवं हिंसा के त्याग की भावना को व्यक्त करता है। यदि व्यक्ति संयमपूर्ण आहार को ग्रहण करता है तो एक ओर उसके स्वास्थ्य और धर्म आराधना का पालन तो होता ही है, साथ ही साथ आर्थिक दृष्टि से भी वह अपने आप को समृद्ध करता है। अतः समतावादी समाज-रचना के लिए जैनदर्शन के संदर्भ में निम्नांकित आर्थिक बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है
1. अहिंसा की व्यावहारिकता 2. श्रम की प्रतिष्ठा 3. दृष्टि की सूक्ष्मता 4. आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन
5. साधन-शुद्धि पर बल 6. अर्जन का विसर्जन। 1. अहिंसा की व्यावहारिकता
अहिंसा के सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा हैअप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥ 44॥
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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