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________________ इस काल की कृति मानना भ्रांति होगी। पाँचवीं शताब्दी में तो मात्र परस्पर बैठकर अपने-अपने कंठस्थ पाठ को व्यवस्थित रूप से लिखा गया था, ज्ञान तो अत्यंत प्राचीनकाल से चला आ रहा था। Winter Rutz के शब्दों में "यद्यपि स्वयं जैनों की परम्परा उनके आगमों के बहुत प्राचीन होने के पक्ष में नहीं है तथापि कम से कम उनके कुछ भागों को अपेक्षाकृत प्राचीन काल का मानने में और यह मान लेने में कि देवर्द्धिगणी ने अंशतः प्राचीन प्रतियों की सहायता से और अंशतः मौखिक परम्परा के आधार पर आगमों को संकलित किया, पर्याप्त कारण है।''3 वस्तुतः आगम साहित्य में निहित गणितीय तत्त्व तो भगवान महावीर के उपदेशों में ही निहित थे। वाचनाकारों का लक्ष्य गणितीय विषयों का उद्घाटन एवं प्रतिस्थापन कदापि नहीं था, ये विषय तो आध्यात्मिक विवेचनाओं से अविभाज्य रूप से सम्बद्ध होने के कारण श्रुत-ज्ञान के साथ ही स्वाभाविक रूप से इन ग्रन्थों में आये हैं। साम्प्रदायिक मतभेद के कारण यदि किंचित परिवर्तन, परिवर्द्धन भी इन आगमों में किये गये हों तो भी गणितीय तत्त्व इनसे निश्चित रूप से अप्रभावित रहे होंगे। इसलिए दत्त, कापडिया ने भगवती सूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों को ईसा पूर्व का माना है। जैन शास्त्रों में जिन बहत्तर कलाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें सर्वप्रथम स्थान लेख का एवं दूसरा गणित का है तथापि आगमों में प्रायः इन कलाओं को "लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ" अर्थात् लेखादिक किन्तु गणित प्रधान कहा गया है। मात्र इतना ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय के विषयानुसार विभाजन के क्रम में उसे चार अनुयोगों में निम्न प्रकार विभाजित किया जाता है - 1. धर्मकथानुयोग- तीर्थंकरों का जीवन, पूर्वभव एवं धार्मिक कथाओं से सम्बद्ध साहित्य। 2. चरण-करणानुयोग- आचार एवं गणित विषयक साहित्य। 3. गणितानुयोग- खगोल विषयक साहित्य। 4. द्रव्यानुयोग- अध्यात्म, न्याय, कर्म एवं दर्शन सम्बन्धी साहित्य । उक्त विभाजन से स्पष्ट है कि जैनधर्म में गणित को अतिविशिष्ट स्थान दिया है। इस विभाजन के अन्तर्गत गणितानुयोग तथा चरण-करणानुयोग के अन्तर्गत करणानुयोग के ग्रंथ उपयोगी हैं। श्वेताम्बर जैन मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने अनुयोगद्वार (विषयवार) संकलन कर गणितज्ञों के लिए काम बहुत आसान कर दिया है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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