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तीर्थकृभ्यः कृतार्थेभ्यः पूज्येभ्यो जगदीश्वरैः। तेषां शिष्यप्रशिष्येभ्यः प्रसिद्धाद्दयरूपर्वतः॥7 जलधेरिव रत्नानि पाषाणादिव काञ्चनम्। शुक्तेर्मुक्ताफलानीव संख्याज्ञान महोदधेः॥18 किंचिदुद्धृत्य तत्सारं वक्ष्येऽहं मतिशक्तितः। अल्पं ग्रन्थमनल्पार्थं गणितं सारसंग्रहम्॥
इससे स्पष्ट है कि वे गणितसार संग्रह में परम्परित ज्ञान के मात्र एक अंश को ही प्रस्तुत कर सकते हैं। यह जैनागमों में निहित पारस्परिक गणितीय ज्ञान की विशदता को भी स्पष्ट करता है। उन्होंने तो यह भी लिखा है -
बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे। यत्किंचिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन बिना न हि ॥6
अर्थात् अधिक प्रलाप करने से क्या फायदा? तीन लोक में जितनी भी चराचर वस्तुएं हैं वे गणित के बिना संभव नहीं है।
प्रस्तुत शोध पत्र में हम स्वयं को प्राकृत की अर्द्धमागधी शैली में निबद्ध जैनागमों एवं उसकी टीकाओं तक सीमित कर रहें हैं। सर्वप्रथम हम अर्द्धमागधी आगमों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे।
भगवान महावीर के उपदेशों को परिवर्ती शिष्यों ने श्रुतरूप में कंठस्थ रखा, किन्तु धीरे-धीरे उनकी स्मृति क्षय होने लगी। तब आगमों के संकलन के लिए निम्न पांच वाचनाएं (संगोष्ठियाँ) हुई :
स्थान
काल
वाचना प्रमुख 1. पाटिल पुत्र
ई. पू. 350 लगभग 2. कुमारी पर्वत (उड़ीसा) ई. पू. दूसरी शताब्दी 3. मथुरा
300-313 ई.
स्कन्दलाचार्य 4. वल्लभी (सौराष्ट्र) 300-313 ई.
नागार्जुन 5. वल्लभी (सौराष्ट्र) 454-456 ई. देवर्द्धिगण क्षमाश्रमण वर्तमान में उपलब्ध आगम साहित्य पाँचवीं वाचना का प्रतिफल है। किन्तु इनको
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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