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________________ आधार बन जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के योग से कर्माश्रव होते हैं। वे सहज नहीं, आगन्तुक है। उनके वर्तमान के साथ अतीत और भविष्य भी जुड़ा रहता है। अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का संयोग संबंध वैसे ही हो जाता है जैसे अमूर्त आकाश का मूर्त घट से संबंध होकर वह घटाकाश, पटाकाश की संज्ञा पा जाता है। यह पौद्गलिक कर्म हमारे भावकर्म पर निर्भर करता है। भावचित्त का संवादी होता है। पौद्गलिकचित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता है-स्थूल शरीर। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। उन्हें किसी ईश्वररूप नियन्ता या नियामक की आवश्यकता नहीं होती। कर्म का विपाक स्वयं हो जाता है या तप से उनकी निर्जरा कर ली जाती है। इसे हम उदात्तीकरण या मार्गान्तरीकरण भी कह सकते हैं। ____ आत्मा में अचिन्त्य ज्ञान-दर्शन शक्ति का प्रस्फुटन कर्म-निर्जरा के बाद ही होता है। इस अवस्था को कोई भी व्यक्ति अपनी साधना से प्राप्त कर सकता है। यहां आत्मा की ही तीन अवस्थायें हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा संसारावस्था है। अन्तरात्मा विशुद्ध पथ पर चलना है और परमात्मा पूर्ण वीतराग अवस्था है। ईश्वर का कोई स्थान नहीं। संसार की सृष्टि निमित्त है। उपादान से स्वयमेव होती रहती है। व्यक्ति अपने ही श्रम और पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। 12. दार्शनिक अवदान जैनधर्म की समूची अवस्थाएं स्वानुभूति पर टिकी हुई है। इसलिए अहिंसा और समतावाद इस दर्शन की मूल भित्ति बनी। दार्शनिक क्षेत्र भी इसी भित्ति पर प्रतिष्ठित होकर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और प्रमाणवाद को संस्थापित किया, भेदविज्ञान ने अध्यात्म को पुख्ता किया और उत्पाद व्यय-ध्रौव्यात्मक तत्त्ववाद ने संसार के स्वरूप को स्पष्ट किया। बौद्धधर्म भेदवादी और असत्कार्यवादी है, न्याय-वैशेषिकों ने असत्कार्यवाद की प्रतिष्ठा की, संख्या-योग सत्कार्यवादी है, मीमांसक बाह्यार्थवादी होकर परिणामवादी है। ये सभी दर्शन भेदवादी रहे हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्तवाद के आधार पर भेदाभेदवाद की बात कहकर सदसत्कार्यवाद की संस्तुति की और इसी में क्षणभंगुरतावाद के सही दर्शन कराये। जैन दर्शन ने आत्मा को नित्य, विशुद्ध और ज्ञान-दर्शन आदि गुणमय माना, परन्तु यह भी कहा कि मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण उसका यह स्वरूप धूल धूसरित हो जाता है। योगनिरोध से उस विशुद्ध मूल रूप को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा का यह स्वतन्त्र अस्तित्व जैनदर्शन की एक विशिष्ट देन है। मन को पौद्गलिक कहकर इस विचार को और भी पुख्ता कर दिया है। 62 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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