________________
पृथक् अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम रही। शाकाहार की प्रतिष्ठा और पर्यावरण की सुरक्षा का आह्वान सबसे पहले जैन संस्कृति ने ही किया जो उसकी मूल अवधारणा का अंग था। 10. सामाजिक समता
___ जैन संस्कृति भाव प्रधान संस्कृति है। इसलिए वहां ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद की कठोर श्रृंखला को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार दिया। उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊंचा नहीं कहा जा सकता। वह ऊंचा तभी हो सकता है जबकि उसका चारित्र या कर्तृत्व ऊंचा हो, विशुद्ध हो। इसलिए महावीर ने समानता के आधार पर चारों जातियों की नई व्यवस्था की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में प्रस्तुत किया
कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो।
वइस्सो कम्मुणो होई, सुद्दो होई कम्मुणो॥ इसी सामाजिक समता के आधार पर महावीर ने सभी जातियों और सम्प्रदायों के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया और उन्हें विशुद्ध आचरण देकर वीतरागता के पथ पर बैठा दिया। यही कारण है जैनाचार्यों ने सभी जातियों के आचार्य हुए हैं। इसी प्रकार नारी को भी दासता से मुक्त कर उसे सामाजिक समता को ही देहली पर नहीं खड़ा किया बल्कि निर्वाण-प्राप्ति को भी अधिकारी घोषित किया। यह उस समय का बहुत बड़ा क्रान्तिकारी सिंहनाद था। दास मुक्ति, नारी मुत्ति और जातिभेद मुक्ति के क्षेत्र में जैन संस्कृति का यह अवदान अविस्मरणीय है। 11. वैयक्तिक स्वातन्त्र्य और कर्मवाद - जैन संस्कृति वैयक्तिक स्वातन्त्र्य पर विश्वास करती है। इसलिए उसने व्यक्ति को ही उसके सुख-दुःख का पूर्ण उत्तरदायी बनाया है। ज्ञान और अध्यात्म में समन्वय स्थापित कर हमारे आचरण की कार्य कारणात्मक मीमांसा में उसने कर्मवाद को स्थापित कर ईश्वरवाद को नकार दिया है। संसार की विभिन्नता में कर्म को भी कारण बतलाकर उसे अनादि तथा शान्त बताया और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को पूर्ण वीतरागता तथा विशुद्धि के माध्यम से प्रशस्त किया।
कर्म अदृश्य है और पौद्गलिक है। उसे हम वासना और संस्कार नहीं कह सकते, क्योंकि वे तो धारणा या स्मृति से संबद्ध है। अच्छाई या बुराई से उसका कोई संबंध नहीं। उसका संबंध है हमारे कर्म से, राग-द्वेष से। राग-द्वेष का वलय ही हमारे आचरण का तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 -
- 61
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org