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हैं। कषाय व्यक्ति को बांध देती है, काट देती है। क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, अहङ्कार विनम्रता को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। इन कषायों से दूर होने का कारण है और अशुभोपयोगी रूप असदाचरण रूप व्यवहार धर्म पुण्य का कारण है और शुभोपयोगी रूप असदाचरण पापकर्मास्त्रव का कारण है। आत्मा का शुद्ध स्वभाव शुद्धोपयोग है जो शुभोपयोग के माध्यम से प्राप्त होता है। शुद्धोपयोग ही मोक्ष का कारण है। __शुभोपयोग व्यवहार धर्म है और शुद्धोपयोग निश्चय धर्म है जीव का स्वभाव अतीन्द्रिय आनन्द है। जिस अनुष्ठान विशेष से उस आनन्द की प्राप्ति होती है वह धर्म कहा जाता है। वह दो प्रकार का है-एक बाह्य और दूसरा अंतरंग। पूजा, दान, पुण्य, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि बाह्य अनुष्ठान है और अंतरंग अनुष्ठान समता व वीतरागता की साधना करना है। बाह्य अनुष्ठान व्यवहार धर्म है और अंतरंग निश्चयधर्म है। निश्चय धर्म सम्यक्त्व रहित भी होता है। परम समाधि रूप केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यवहार धर्म भी त्याज्य हो जाता है। इसके बावजूद निश्चय धर्म संवर तथा कर्मनिर्जरा का तथा परम्परा से मोक्ष का कारण सिद्ध होता है।
श्रमण संस्कृति यद्यपि मूलतः स्व पुरुषार्थवादी संस्कृति है पर व्यवहार में वह अपने परम वीतराग इष्टदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति की अभिव्यक्ति से विमुख नहीं रह सकी। यह स्वाभाविक है और मनोवैज्ञानिक भी। व्यक्ति के मन में जिसके प्रति पूज्य भाव होता है, उसके प्रति निष्ठा, श्रद्धा, आस्था और भक्ति स्वयं स्फुरित होन लगती है और स्वर लय खोजने लगता है। स्तुति और स्तोत्र उसी लय का जीवन्त रूप है। संगीत का माधुर्य और हृदय का स्वर-स्रोत उसी से प्रवाहित होता है। भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक के साथसाथ भौतिक साधनों की प्राप्ति की भी लालसा जाग्रत होती है और उसी लालसा से मन्त्रतन्त्र का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए भक्ति अध्यात्म का निष्पन्द है और मन्त्र-तन्त्र उसके पुत्र-पुष्प। निर्वाण-प्राप्ति उसका फल और लक्ष्य है।
इस भूमिका पर बैठकर जब हम आगम और सिद्धान्त ग्रन्थों को देखते हैं, टटोलते हैं तो पाते हैं कि भक्ति वह आराधना है जो वीतराग देव के प्रति शुद्ध रत्नत्रय-परिणामों से की जाती है। वस्तुतः वह शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना है। व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टि पंच परमेष्ठियों की आराधना-भक्ति करता है। विशुद्ध भावों के साथ उनके प्रति अनुराग व्यक्त करता है। यह भक्ति-दर्शन-विशुद्धि आदि के बिना हो नहीं सकती।
इस भक्ति की छह आवश्यक क्रियायें हैं-सामायिक, वन्दना, स्तुति, स्वाध्याय,
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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