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________________ 8. रत्नत्रय की समन्वित साधना तीर्थङ्कर महावीर ने साधना की सफलता के लिए तीन कारणों का निर्देश किया हैसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । इन तीनों तत्त्वों को समवेत रूप में रत्नत्रय कहा जाता है। दर्शन का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाषा में आत्मनुभूति के लिये प्रयास कह सकते हैं। श्रद्धापूर्वक ज्ञान और चारित्र का सम्यक् योग ही मोक्ष रूप साधन की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । इसलिए इन तीनों की समन्वित अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है - सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: । " रत्नत्रय का पालन ही धर्म है। इस प्रकार की परिभाषायें देखिये 1. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धमेश्वरा विदुः 20 2. धम्मो णाम सम्मद्दंसण - णाण - चरित्ताणिस 3. सम्यग्दृष्टि - प्राप्ति चारित्रं धर्मों रत्नत्रयात्मक 22 मोक्ष - प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव संबंध है । जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण सभी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है 3 जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य-पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है- तच्चरुई सम्मत्तं । 24 सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है । वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रकट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीति होना मूल कारण है। आत्मप्रतीति में सम्यग्ज्ञान होता है । सम्यग्ज्ञान वह है जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रमाण और नय इसी सीमा में आते हैं । सम्यक्त्व का महत्त्व "दंसणभट्टा भट्टा" गाथा से भली-भांति स्पष्ट हो जाता है । सम्यक् आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है जिसमें कोई पाप - क्रियायें न हों, कषाय न हों, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हों । यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है-गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है, दूसरा महाव्रत है। इनमें अणुव्रतों की संख्या बारह अनर्थदण्डव्रत पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामाजिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिणाम तथा अतिथि संविभाग इन चार व्रतों का पालन करने से सामाजिकता का पालन होता है । श्रावक बड़ी महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इसमें व्यक्ति इस अवस्था तक पहुंच जाता है तुलसी प्रज्ञा जनवरी - मार्च, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 57 www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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