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अर्थहीन हो गई है। लेकिन ऐसा सही नहीं है । वस्तुस्थिति समझने के लिए हमें जैन कर्म - सिद्धान्त को गहराई से समझना होगा।
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सबसे पहले तो हमें स्पष्ट करना होगा कि प्रत्येक घटना मात्र कर्म से घटित नहीं होती । आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक कर्मवाद में लिखा है- "कर्म से ही सब कुछ नहीं होता । यदि हम कर्मों के अधीन ही सब कुछ घटित होना मान लेंगे तो यह वैसी ही व्यवस्था हो जाएगी जैसी कि ईश्वरवादियों की है कि जो कुछ होता है वह ईश्वर की इच्छा से होता है या फिर उन नियतिवादियों की स्थिति है कि सब कुछ नियति के अधीन है । हम उसमें कुछ भी फेर-बदल नहीं कर सकते । यदि कर्म ही सब कुछ हो जाए तो उनको क्षय करने के लिए न तो पुरुषार्थ का ही महत्त्व रह जाएगा और न ही मोक्ष संभव होगा, क्योंकि जैसे कर्म होंगे वैसा ही उनका उदय होगा और उस उदय के अनुरूप ही हम कार्य करेंगे तथा नए कर्मों का बंधन करेंगे। इससे पुरुषार्थ तथा मोक्ष की बात गलत सिद्ध हो जाएगी ।" अब यह स्पष्ट है कि कर्म ही सब कुछ नहीं है । 12
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आचार्यश्री महाप्रज्ञजी आगे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- " कर्म एक निरंकुश सत्ता नहीं है। कर्म पर भी अंकुश है। कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। भगवान महावीर ने कहा- ' किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा' । यह सामान्य नियम है, लेकिन कुछ अपवाद भी हैं । कर्मों में उदीरणा, उद्वर्तन, अपवर्तन तथा संक्रमण संभव हैं जिसके द्वारा कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है । सामान्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि पुरुषार्थ द्वारा कर्मों की निर्जरा समय से पहले की जा सकती है। कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाया और घटाया भी जा सकता है तथा सजातीय कर्म एक भेद से दूसरे भेद में बदल सकते है । उदय में आने वाले कर्मों के फल की शक्ति को कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है तथा काल विशेष के लिए पुनः फल देने में अक्षम भी किया जा सकता है, इसे उपशम कहते है । ' 13
आचार्य महाप्रज्ञजी का मानना है - " संक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है । 14 एक विशेष बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि कर्मों का विपाक (फल) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप होता है । व्यक्तित्व के निर्माण में कर्म ही सब कुछ नहीं होते हैं बल्कि आनुवंशिकता, परिस्थिति, वातावरण, भौगोलिकता, पर्यावरण यह सब मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार पर असर डालते हैं । आयुष्य भी एक कर्म हैं लेकिन बाह्य निमित्त जहर आदि के सेवन से आयुष्य को कम कर दिया जाता है। इसी प्रकार कोशिका (Cell) गुणसूत्रों (Chromosome) में अवस्थिति जीन्स (संस्कारसूत्र ) में परिवर्तन करके शक्ल-सूरत में परिवर्तन किया जा सकता है, क्योंकि जैन-कर्म
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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