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जितने भी स्रोत हैं, उनका और पवित्र होना आवश्यक है, तभी हम समतावादी समाज का निर्माण कर सकते हैं। __इसी सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने आजीविकोपार्जन के उन कार्यों का निषेध किया है, जिनसे पापवृत्ति बढ़ती है। वे कार्य कर्मादान कहे गये हैं। अतः साधन-शुद्धि के अभाव में इन कर्मादानों को लोक में निन्द्य बताया गया है। इनको करने से सामाजिक प्रतिष्ठा भी समाप्त होती है। कुछ कर्मादान हैं, जैसे -
1. इंगालकर्म (जंगल जलाना)। 2. रसवाणिज्जे (शराब आदि मादक पदार्थों का व्यापार करना)। 3. विसवाणिज्ज (अफीम आदि का व्यापार)। 4. केसवाणिज्जे (सुन्दर केशों वाली स्त्रियों का क्रय-विक्रय)। 5. दवग्गिदावणियाकमेन (वन जलाना)।
6. असईजणणेसाणयाकम्मे (असामाजिक तत्त्वों का पोषण करना आदि।) 6. अर्जन का विसर्जन -
अर्जन का विसर्जन नामक सिद्धान्त को जैनदर्शन में स्वीकार्य दान एवं त्याग तथा संविभाग के साथ जोड़ सकते हैं। महावीर ने अर्जन के साथ-साथ विसर्जन की बात कही। अर्जन का विसर्जन तभी हो सकता है, जब हम अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित एवं मर्यादित कर लेते हैं। स्वैच्छिक परिसीमन के साथ ही अर्जन का विसर्जन लगा हुआ है। उपासकदशांग सूत्र में दस आदर्श श्रावकों का वर्णन है, जिसमें आनन्द, मन्दिनीपिता और सालिहीपिता की सम्पत्ति का विस्तृत वर्णन आता है। इससे यह स्पष्ट है कि महावीर ने कभी गरीबी का समर्थन नहीं किया। उनका प्रहार या चिन्तन धन के प्रति रही हुई मूर्छावृत्ति पर है। वे व्यक्ति को निष्क्रिय या अकर्मण्य बनने को नहीं कहते, पर उनका बल अर्जित सम्पत्ति को दूसरों में बांटने पर है। उनका स्पष्ट उद्घोष है - असंविभागी ण हु तस्स मोक्खो अर्थात् जो अपने प्राप्त को दूसरों में बाँटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती। अर्जन के विसर्जन का यह भाव उदार और संवेदनशील व्यक्ति के हृदय में ही जागृत हो सकता है।
भगवतीसूत्र में तुंगियानगरी के श्रावकों का उल्लेख मिलता है, जिनके घरों के द्वार अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे। अतिथियों में साधुओं के अतिरिक्त जरूरतमंद लोगों का भी समावेश है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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