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________________ 5. साधन-शुद्धि पर बल साधन-शुद्धि पर बल देकर भी समतावादी समाज की रचना करने के कुछ सूत्र महावीर ने दिए। अणुव्रतों के द्वारा व्यक्ति की प्रवृत्ति न केवल धर्म या दर्शन के क्षेत्र में विकसित होती है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अणुव्रतों का पालन समतावादी समाजरचना का हेतु अथवा साधन माना जाता है। साधन-शुद्धि में विवेक, सावधानी और जागरूकता का बड़ा महत्त्व है। जैन दर्शन में साधन-शुद्धि पर विशेष बल इसलिए भी दिया गया है कि उससे व्यक्ति का चरित्र प्रभावित होता है। बुरे साधनों से एकत्रित किया हुआ धन अन्ततः व्यक्ति को दुर्व्यसनों की ओर ले जाता है और उसके पतन का कारण बनता है। तप के बारह प्रकारों में अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या और रस परित्याग भोजन से ही सम्बन्धित हैं। इसीलिए खाद्य शुद्धि-संयम प्रकारान्तर से साधन-शुद्धि के ही रूप बनते हैं। अहिंसा की व्यावहारिकता की तरह ही सत्याणुव्रत एवं अस्तेयाणुव्रत का साधनशुद्धि के सन्दर्भ में महत्त्व है। ये विभिन्न व्रत साधन की पवित्रता के ही प्रेरक और रक्षक हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थार्जन करने में व्यक्ति को स्थूल हितों से बचना चाहिए। सत्याणुव्रत में सत्य के रक्षण और असत्य से बचाव पर बल दिया गया। व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए, कन्नालाए (कन्या के विषय में), गवालीए (गौ के विषय में), भोमालिए (भूमि के विषय में), णासावहारे (अर्थात् धरोहर के विषय में झूठ न बोलें) तथा दूडसक्खिजे (झूठी साक्षी न दें) इनका उपयोग व उपभोग न करें। अर्थ की दृष्टि से सत्याणुव्रत का पालन कोर्ट-कचहरी में झूठे दस्तावेजों में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी में नहीं हो पाता, क्योंकि इन सभी क्षेत्रों में अर्थ की प्रधानता होने से असत्य का आश्रय लिया जाता है, जिससे समाज के मूल्य ध्वस्त हो जाते हैं। इसीलिए सत्याणुव्रत समाज-रचना का आधार बन सकता है। अस्तेय व्रत की परिपालना का भी साधन-शुद्धता की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। मन, वचन और काय द्वारा दूसरों के हकों को स्वयं हरण करना और दूसरों से हरण करवाना चोरी है। आज चोरी के साधन स्थूल से सूक्ष्म बनते जा रहे हैं। खाद्य वस्तुओं में मिलावट करना, झूठा जमा-खर्च बताना, जमाखोरी द्वारा वस्तुओं की कीमत घटा या बढ़ा देना, ये सभी कर्म चोरी के हैं। इन सभी सूक्ष्म तरीकों की चौर्यवृत्ति के कारण ही मुद्रा-स्फीति का इतना प्रसार है और विश्व की अर्थव्यवस्था उससे प्रभावित हो रही है। अतः अर्थ व्यवस्था संतुलन के लिए आजीविका के जितने भी साधन हैं और पूंजी के 10 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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