Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 88
________________ अपनी ओर आकर्षित करते हैं । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग भी इसमें हुआ है। भारतीय वाङ्मय में पालि, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी आदि विभिन्न भाषाओं में मुक्तक काव्य, गीतिकाव्य, महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य की रचनाएँ की गयी हैं । पालि में उदान, धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरगाथा, थेरीगाथा, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय आदि तथा प्राकृत ग्रन्थों में आचारांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ, भगवती आराधना, सेतुबंध कुमारपालचरित, गउडवहो, कंसवहो, कुवलयमालाकहा, समराइच्चकहा आदि अनेक तरह के काव्यों और कथाओं की रचना की गयी है । प्रबन्ध काव्यों की अपेक्षा मुक्तक काव्यों की ओर पाठक अधिक आकृष्ट होते हैं । इसका प्रमुख कारण है मुक्तकों का अनेक प्रकार के श्रृंगार आदि रसों से पूर्ण होना । मुक्तक के प्रत्येक पद की स्वतन्त्र सत्ता होती है और वे स्वतन्त्र रूप से भाव व्यक्त करने में भी सक्षम होते हैं। इन मुक्तकों की शब्द शैली में भावों की प्रधानता होती है । मुक्तक काव्य में भाव सहज संप्रेषणीय होता है । पालि साहित्य में मुक्तकों की दृष्टि से खुद्दक निकाय के धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरगाथा, थेरीगाथा आदि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । इन सबमें तत्कालीन जन-समुदाय की रुचि, व्यवसाय, विद्या, कला, विज्ञान, राजनीति, ग्राम, नगर, जनपद, लोगों का रहन-सहन, खेती, व्यापार, सामाजिक रीतियाँ, समाज में स्त्रियों का स्थान, दास-दासियों और नौकरों की अवस्था प्रभृति अनेक उपयोगी विषयों का समावेश इसमें मिल जाता है । प्राकृत भाषा में लिखित मुक्तक या गीतिकाव्य के ग्रन्थों में आगम और उनके व्याख्यात्मक साहित्य के अतिरिक्त गाथासप्तशती, वज्जालग्गं, गाहाकोष, आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं जिनका प्रभाव परवर्ती मुक्तक काव्य परम्परा, शतक, सूक्ति एवं सुभाषितकारों पर भी दिखाई पड़ता है । हमने अपने इस शोधप्रबन्ध को पाँच अध्यायों में विभक्त किया है। जिनका संक्षेप में परिचय निम्न प्रकार है: हमने शोध- प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में भाषा के विकासक्रम में पालि भाषा और प्राकृत भाषा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्राकृत साहित्य और पालि साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों की समीक्षा कर मुक्तक के स्वरूप को स्पष्ट किया है। द्वितीय अध्याय में पालि और प्राकृत के मुक्तक ग्रन्थों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इससे यह ज्ञात हुआ है कि प्रमुख रूप से संयुक्त निकाय, धम्मपद, तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 83 www.jainelibrary.org

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