Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 84
________________ तकनीक के द्वारा मानव के विभिन्न अंगों को प्रयोगशाला में ही विकसित किया जा सकता है, जिससे कई असाध्य रोगों को दूर करने में आसानी होगी। इसके अलावा इस तकनीक से विभिन्न बेकार जीन्स को बदला जा सकेगा तथा बुढ़ापे को रोका जा सकेगा। इसी चिकित्सकीय उपयोगिता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने जनवरी 2001 में मानव क्लोनिंग की इजाजत दे दी है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्मबद्ध आत्मा ही नये कर्मों का संचय करती है। कर्म का बीज है-राग-द्वेष । मुक्त आत्मा कर्म संचय नहीं करती। उसके राग-द्वेष पूर्णत: नष्ट हो चुके होते हैं। कर्म क्षय करने में जैन धर्म का पुरुषार्थ एवं प्रयत्न में अटूट विश्वास है। जैन साधना पद्धति का उद्देश्य संवर और निर्जरा के द्वारा कर्मों का क्षय कर मोक्ष की प्राप्ति करना है। संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना तथा उदीरणा आदि के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति को, अनुभाग को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए समता-भाव की साधना, आराधना करते हुए तप रूप निर्जरा को जीवन का अंग बनाना आवश्यक है। जीन हमारे स्थूल शरीर का अवयव है और कर्म हमारे सूक्ष्मतम शरीर का अवयव है। "जीन्स" व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों के संवाहक हैं। प्रत्येक विशिष्ट प्रकार के गुण के लिए विशिष्ट प्रकार का जीन होता है। यह जीन कर्मवाद के संवादी हैं। वंश-परम्परा विज्ञान में क्लोनिंग तकनीक के द्वारा मानव के विभिन्न अंगों को प्रयोगशाला में ही विकसित किया जा सकता है, जिससे कई असाध्य रोगों को दूर करने में आसानी होगी। इसके अलावा इस तकनीक से विभिन्न बेकार "जीन्स" को बदला जा सकेगा तथा बुढ़ापे को रोका जा सकेगा। संक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है। "भाव परिवर्तन" द्वारा कर्मों की निर्जरा तथा जीन्स का रूपान्तरण किया जा सकता है। निष्कर्ष वैज्ञानिकों के सामने एक चुनौती है कि जब जीन ही जीव के प्रत्येक कार्य कर नियंत्रण रखता है तब जीन को कौन नियंत्रित करता है ? इसका उत्तर उनके पास नहीं है। इस समस्या का उत्तर जैन दर्शन की कर्म-व्यवस्था द्वारा दिया जा सकता है। इन जीनों (Genes) को कर्म नियंत्रित करते हैं। कर्म ही समय-समय पर जीनों को निर्देश देते हैं कि उन्हें आगे क्या कार्य करना है फिर जीन उसी के अनुरूप कार्य करते हैं यानि कि औदारिक शरीर के निर्माण में जीन कर्म के संवादी तत्त्व हैं। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - - 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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