Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 74
________________ जैन कर्म - सिद्धान्त और वंश-परम्परा विज्ञान सोहनराज तातेड़ लोक या ब्रह्माण्ड (Universe) मुख्यतया दो तत्त्वों-चेतन और जड़ से बना है। इन दोनों का अस्तित्व शाश्वत है। दोनों के पर्याय बदलते रहते हैं, इसी कारण सृष्टि में हर क्षण रूपांतरण होता रहता है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार चेतना व जड़ का तारतम्य अनादि अनन्त काल से है तथा वह तब तक बना रहेगा तब जब आत्मा पौद्गलिक कर्म - बंधनों का पूर्ण क्षय कर मुक्त अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेती। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार " उपयोग लक्षणो जीवः ।" जीव (आत्माचेतना) का लक्षण उपयोग है। ज्ञान-दर्शन को उपयोग कहते हैं । ज्ञान - दर्शन को आबद्ध करने वाला मुख्य मोहनीय कर्म है । मोह के कारण राग-द्वेष । रागद्वेष के कारण कर्म । कर्म के कारण जन्म-मरण । जन्म-मरण के कारण दुःख की उत्पत्ति | इस प्रकार यह आवृत्ति पुनरावृत्ति होती रहती है । तत्वार्थसूत्र में कहा गया “बध्यते परतन्त्रीक्रियते आत्माऽनेनेति बन्धनम् ।" जिसके द्वारा आत्मा परतन्त्र कर दिया जाता है वह बंधन (कर्म) है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार कर्मबद्ध आत्मा ही नये कर्मों का संचय करती है। मुक्त आत्मा कर्म संचय नहीं कर सकता, क्योंकि उनके कर्म बीज राग-द्वेष पूर्ण नष्ट हो चुके होते हैं। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार आत्मा कर्म का उपादान है । आत्मा कर्म की कर्त्ता तथा भोक्ता है । उपादान तभी व्यक्त होता है जब उसे निमित्त मिले । कर्मों को भोगने के लिए निमित्त बनते हैं- योग ( मन-वचनकाया), वातावरण तथा परिस्थिति । बिना निमित्त के कर्म आत्म प्रदेशों में ही भोग लिए जाते हैं । कषाय ( राग-द्वेष ) योगों की चंचलता बढ़ाते हैं । योग चंचल होने पर कषाय को उत्तेजित करते हैं तथा कर्म योग्य पुद्गलों का बंध होता हैं । इस प्रकार पूरा एक चक्र है । ' तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 69 www.jainelibrary.org

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