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वहीं मानव-मानव के बीच पनप रहे अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त करने का भी मार्ग प्रशस्त किया। समन्तभद्र ने उसी को सर्वोदयवाद कहा था। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने इसी के स्वर को नया आयाम दिया था। प्रारम्भ से लेकर अभी तक सभी जैनाचार्य अपने उपदेश
और साहित्य सजन के माध्यम से एकात्मकता की प्रतिष्ठा करने में ही लगे रहे हैं। इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं, जिसमें जैन धर्मावलम्बियों ने किसी पर आक्रमण किया हो और एकात्मकता को धक्का लगाया हो। भारतीय संस्कृति में उसका यह अनन्य योगदान है, जिसे किसी भी कीमत पर झुठलाया नहीं जा सकता। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा मन्दिरों और शास्त्र भण्डारों को नष्ट किये जाने के बावजूद जैन धर्मावलम्बियों ने अपनी अहिंसा और एकात्मकता के स्वर में आँच नहीं आने दी। यह उनकी अहिंसक धार्मिक जीवन पद्धति और दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक चिन्तन का परिणाम था कि सदैव उसने जोड़ने का काम किया, तोड़ने का नहीं।
जैन संस्कृति की ये मूल अवधारणाएँ मानवतावाद के विकास में सदैव कार्यकारी रही हैं। उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र से भ्रष्टाचार दूर कर सर्वोदयवादी
और अहिंसावादी विचारधारा को प्रचारित करने का अथक प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों को न्यायवत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीविनी से दूर किया, शाकाहार पर पूरा बल देकर पर्यावरण की रक्षा की और सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द वयार से शान्त किया। जीवन के हर अंग में अहिंसा और मद्य, माँस, द्यूत आदि जीवनघाती व्यसनों से मुक्ति के महत्त्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैन संस्कृति ने सर्वाधिक योगदान दिया है। यह उसकी गहन चरित्र-निष्ठा का परिणाम है। बारह व्रतों में अनर्थदण्डव्रत को जोड़कर उसने और भी महनीय प्रतिष्ठा का काम किया है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने का भी उत्तरदायित्व जैनों ने अच्छी तरह निभाया है। उनकी वैज्ञानिक दृष्टि भी उल्लेखनीय रही है। यह तथ्य जैन साहित्य से परिपुष्ट हो जाता है
सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. त्रयो धर्मस्कन्धाः 2.3 2. धर्मं चर-1.11 3. रत्नकरण्डश्रावकाचार-2 4. सर्वार्थसिद्धि-९ तत्त्वार्थवार्तिक ९.२३ 5. दशवैकालिकचूर्णि, पृ. १५
जलितविस्तरा, पृ. ९०, आवश्यक्सूत्र
मलयवृत्ति, पृ. ५९२, पद्मपुराण १४.१०३-४, महापुराण २.३७, उततराध्ययन चूर्णि३ पृ. ९८, धर्मामृत टीका- ५ प्र. सा. जय. वृ. १-८ आदि। उत्तराध्ययन, २०.३७-३८
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तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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