Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 70
________________ ब्राह्मण परम्परा की अनुश्रुतियों में लिच्छिवि, मल्ल, मोरिय आदि जातियों को व्रात्य कहा गया है। व्रात्य जन्मतः क्षत्रिय और आर्य जाति के थे, जो मूलतः मध्य देश के पूर्व या उत्तर-पश्चिम में रहते थे। उनकी भाषा प्राकृत थी और वेशभूषा अपरिष्कृत थी। वे चैत्यों की पूजा करते थे। आर्य द्रविड़ों, नाग, पणि और विद्याधर जाति से भी उनके सम्बन्ध थे। वर्णसंकरता उनमें बनी हुई थी। फिर भी अपने को वे क्षत्रिय मानते थे और श्रमण संस्कृति के पुजारी थे। उनके वैदिक यज्ञ विधन और जातिवाद के विरोधक प्रखर स्वर में आध्यात्मिकता व औपनिषदिक विचारधारा का उदय व्रात्य संस्कृति का ही परिणाम है। जहाँ वैदिक यज्ञों को फूटी नाव की उपमा दी गई है। श्रमण व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा था और संजोया था अपने विचारों में जिन्हें तीर्थंकरों और जैनाचार्यों ने समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बन को प्रमुखता देकर जीवन क्षेत्र को एक नया आयाम दिया और जिसे महावीर और बुद्ध जैसे महामानवीय व्यक्तियों ने आत्मानुभूति के माध्यम से पुष्पित-फलित किया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे से आयी विकृत परम्पराओं के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और अहिंसक दृढ़ता थी, जिसे उसने थाती बनाकर कठोर झंझावातों में भी संभालकर रख। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है, वह निश्चय ही अनुपम माना जाएगा। बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ आ भी गईं पर जैनधर्म ने चारित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया। अब मात्र संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं था। पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जसी लोकबोलियों ने भी जनमानस की चेतना को नये स्वर दिये और साहित्य सृजन का नया प्रांगण खुला गया। इस समूचे साहित्य में एकात्मकता का जितना सुन्दर ताना-बाना हुआ है व अन्यत्र दुर्लभ है। अर्हन्तों और बोधिसत्वों की वाणी ने जीवन-प्रसाद को जितना मनोरम और धवल बनाया, उतना ही उनके प्रति आत्मीयता जाग्रत होती रही। फलतः हर क्षेत्र में उनका अतुल योगदान सामने आया। भावात्मक एकता की सृजन-शक्ति भी यहीं से विकसित हुई। इसी बीच मगध साम्राज्य का उदय हुआ। विदेशी आक्रमण हुए। उस राजनीतिक अस्थिरता को दूर कर एकता प्रस्थापित करने का काम किया। राष्ट्रनिर्माता कुशल प्रशासक मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिसने जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण प्रदेश की यात्रा की और दिगम्बर मुनिव्रत धारण कर श्रवणबेलगोला में समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। अशोक (268-69 ई.पू.) भी मूलतः जैन सम्राट् था, जिसमें धार्मिक तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - - 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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