Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है, तब नये जन्म के प्रारम्भ में जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार वह पर्याप्ति नाम-कर्म की सहायता से भावी जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए एक साथ आवश्यक पौद्गलिक सामग्री का निर्माण करती है। इसे या इससे उत्पन्न होने वाली पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते है। पर्याप्तियों का क्रम इस प्रकार है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति । कुल छः पर्याप्तियाँ हैं । छहों ही पर्याप्तियों का आरम्भ एक काल में होता है, परन्तु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है, इसलिए इस क्रम का नियम रखा गया है। आहार पर्याप्ति को पूर्ण होने में एक समय और शरीर पर्याप्ति आदि पांचों में से प्रत्येक को अन्तर्मुहर्त्त लगता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मनः पर्याप्तियों के द्वारा जीव पर्याप्ति के माध्यम से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा एवं मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। उन्हें तदनुरूप परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं। ___वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) के अन्तर्गत 'जीन्स" को जैन-सिद्धान्त के अन्तर्गत शरीर पर्याप्ति के रूप में माना जा सकता है। पर्याप्ति का अर्थ जीवनोपयोगी पुद्गलों की शक्ति के निर्माण की पूर्णता। सबसे कम विकसित प्राणी में कम से कम स्पर्शेन्द्रिय प्राण, कायबल, श्वासोच्छ्वास प्राण, आयुष्य प्राण-कुल चार प्राण तथा आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति- कुल चार पर्याप्ति अवश्य होती हैं। इस प्रकार जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार प्राणों तथा पर्याप्तियों के योग से प्राणी का जीवन क्रम चलता है। कोशिकाओं में जो वृद्धि विभाजन विशिष्टता (Specialisation) भिन्नता (differentiation) आदि क्रिया होती हैं वे सब इन पर्याप्तियों का ही हिस्सा है। इन पर्याप्तियों का नियन्त्रण कर्मों द्वारा होता है। कोशिका की मृत्यु होती है तथा अनेक कोशिकाओं द्वारा निर्मित बहुकोशीय प्राणी की भी मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु आयुष्य कर्म के हिसाब से होती है। जितना इनका आयुष्य होगा, उतने वर्ष तक जीवित रहेंगे। व्यक्ति के व्यवहार, आचार, विचार और प्रत्येक क्रिया कलाप का अंकन व्यक्ति के भीतर निरंतर होता रहता है। ऐसा आज विज्ञान की अनेक शाखाएं भी मानने लगी हैं। आज वही अंकन कालांतर से उस व्यक्ति को प्रभावित करता है। भारतीय दर्शनों ने इस अंकन प्रणाली की कर्म-सिद्धान्त के रूप में विस्तृत विवेचना की है। आधुनिक विज्ञान उस अंकन की विभिन्न पद्धतियों और संस्थानों की चर्चा को आधार बनाती है। हमारा मस्तिष्क भी हमारे क्रिया-कलापों को रिकार्ड करता है। हमारी प्रतिरोधात्मक कोशिकायें तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 __ 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122