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परिस्थितियां देते हैं। उसमें जीव/आत्मा का आविर्भाव उनके बस के बाहर की है। क्लोनिंग सिर्फ शरीर के स्तर तक जुड़ी हुई हैं जबकि आत्मा तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की सीमाओं से परे है। आत्मा तथा पुनर्जन्म का आभास सत्यान्वेषी अहिंसक मानवों को होता है। इसे अभी वैज्ञानिक भी पूरे आत्मविश्वास तथा प्रमाणों के साथ नकार नहीं सके हैं। कारण स्पष्ट है कि इनके अस्तित्व के सम्बन्ध में संसार भर में असंख्य प्रमाण/ घटनाएं हर समय होती ही रहती हैं।" जैन धर्म तथा प्रौद्योगिकी
जीव विज्ञान की आधुनिक विकसित शाखा जैव प्रौद्योगिकी में मानव जीनोम परियोजना, जैनेटिक अभियांत्रिकी, जैनेटिक सर्जरी तथा मानव क्लोनिंग आदि का अध्ययन, अन्वेषण किया जाता है। इसके नूतन अनुसंधानों के द्वारा जीवों के गुणसूत्रों पर स्थित जीन्स (संस्कार सूत्र) के कई गुण धर्मों का पता चल रहा है। जीवों की विभिन्न दशाओं-बुढ़ापा, अपराध, बीमारियां आदि का नियमन भी इन संस्कार सूत्रों से होता है तथा इनके परिवर्तन के द्वारा मनोवांछित जीवन बनाने का दावा वैज्ञानिक कर रहे हैं। जीनों तथा जैनेटिक कोड के इस गुणधर्म को ध्यान में रखते हुए जैनेटिक कोड्स और कर्म परमाणुओं के बीच सम्बन्धों पर परिकल्पना वैज्ञानिकों को दी गई है जिस पर कुछ वैज्ञानिक व्यापक अनुसंधान भी कर रहे हैं।
पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि जीन तथा जैनेटिक कोड सर्वोपरि नहीं हैं तथा उन पर शारीरिक, पर्यावरणीय, वातावरण, आंतरिक तथा बाह्य परिस्थतियां भी नियन्त्रण रखती हैं। जीवन के क्रियाकलाप उसके स्वयं के शरीर के साथ-साथ दूसरे जीवों के क्रियाकलापों तथा अन्य बाह्य परिस्थितियों द्वारा संचालित होते हैं। इन जीनों तथा इनकों प्रभावित करने वाले उक्त कारण ही अन्ततः कर्म-परमाणुओं की संभावनाओं को सूचित करते हैं जिनके संबंध में वैज्ञानिक वर्ग फिलहाल पूर्णतः मौन है। अगर वैज्ञानिक जैन कर्म-सिद्धान्त को समझकर जीवों के विभिन्न कार्य-सच्चाई-झूठ, अहिंसाअपराध, जीवदया-क्रूरता पर सतत अन्वेषण करें तो वे इस महान् जैन कर्म-सिद्धान्त को सत्य सिद्ध पाएंगे।"
जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीव के शरीर की रचना उसके नाम-कर्म के कारण होती है। कोई जीव कैसी शक्ल-सूरत प्राप्त करेगा उसका निर्धारण इसी नामकर्म से होता है। लेकिन यहां तो क्लोन से शरीर की रचना मनुष्य के अपने ही हाथों में आ गई है। हम जैसी शक्ल-सूरत बनाना चाहते हैं, बना सकते है। ऐसी स्थिति में नामकर्म की अवधारणा
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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