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सहिष्णुता, सार्वभौमिकता, असाम्प्रदायिक मनोवृत्ति, अहिंसात्मक भावना, सद्विचार और एकात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई थी।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पुष्पमित्र शुंग ने ब्राह्मण साम्राज्य की स्थापना की आन्ध्र-सातवाहन आये, जिन्होंने प्राकृत भाषा का विशेष आश्रय दिया। कलिंग खारवेल भी जैन सम्राट् था, जिसने मगध साम्राज्य से युद्ध कर कलिंग जिनमूर्ति को वापिस प्राप्त किया। इसी समय मूर्तिकला के क्षेत्र में गान्धारकला ने एक नयी दृष्टि-सृष्टि दी। मथुरा कला का भी अपने ढंग का विकास हुआ और वहाँ जैन, बौद्ध, वैदिक- तीनों सम्प्रदाय समान रूप से विकास करते रहे। मथुरा की जैनकला कदाचित् प्राचीनतम कला है।
गुप्तकाल को हमारे इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। पूज्यपाद, सिद्धसेन आदि प्रखर जैन विद्वान इसी काल में हुए जिन्होंने समन्वयवादिता पर विशेष जोर दिया। इसी युग में देवर्धिगणि द्वारा 453 ई. में वल्लभी में जैनागमों का संकलन हुआ। ___गुप्त काल के बाद राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गई। इस काल में हर्ष की धार्मिक सहिष्णुता विशेष निदर्शनीय है। हर्ष की मृत्यु (646 ई.) के उपरान्त उत्तर भारत में पाल, सेन, परमार, कलचुरि आदि कितने ही छोटे-मोटे राजा हुए, जिन्होंने हमारी संस्कृति को सुरक्षित ही नहीं रखा, बल्कि उसे बहुत कुछ दिया भी है। वाकाटक, राष्ट्रकूट आदि राजवंशों ने भी जैनधर्म का पालन करते हुए सांस्कृति एकता के यज्ञ में अपना योगदान दिया।
पूर्व मध्यकाल में चालुक्य, पाल, चेदि, चन्देल आदि वंश आये, जिन्होंने शैव और वैष्णव मत का विशेष प्रसार किया। शाक्त और नाथ सम्प्रदाय भी उदित हुए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दिक्पाल आदि की पूजा का प्रचलन बढ़ा और अवतारवाद का खूब प्रचार-प्रसार बढ़ा। इसी काल में बौद्धधर्म की तान्त्रिकता ने उसे पतन का रास्ता बता दिया। पर जैनधर्म अपेक्षाकृत अधिक अच्छी स्थिति में रहा। विशेषतः दक्षिण भारत में उसे अच्छा राज्याश्रय मिला। यद्यपि लिंगायत सम्प्रदाय द्वारा ढाये गये अत्याचारों को भी उसे झेलना पड़ा। फिर भी अपनी चारित्रिक निष्ठा के कारण जैनधर्म नामशेष नहीं हो सकता। यह इसलिए भी हुआ कि जैनधर्म वैदिक धर्म के अधिक समीप आ गया था। कला के क्षेत्र में उसका यह रूप आसानी से देखा जा सकता है।
जैनधर्म प्रारम्भ से ही वस्तुतः एकात्मकता का पक्षधर रहा है। उसका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त अहिंसा की पृष्ठभूमि में एकात्मकता को ही पुष्ट करता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। हिंसा के विरोध में अभिव्यक्त अपने ओजस्वी और प्रभावक विचारों से जैनाचार्यों ने एक ओर जहाँ दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयास किया,
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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