Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ मूर्तिकला के साथ ही गुफाओं और वास्तुकला का सम्बन्ध भी अविच्छिन्न है। बराबर, नागार्जुनी पहाड़, उदयगिरि - खण्डगिरि, रानीगुफा, गिरनार गुफायें, सोनभण्डार तथा दक्षिणापथ की मदुरै, रामनाथपुरम्, सितन्नवासल आदि में प्राप्त जैन गुफायें विशेष उल्लेखनीय हैं। अयागपट्ट, स्तूप, सरस्वती मूर्तियों, मन्दिर आदि के निर्माण ने वास्तुकला को और भी समृद्ध किया । नागर, वेसर और द्राविड शैलियों के साथ ही अन्य प्रादेशिक शैलियों का भी भरपूर प्रयोग जैन साधकों ने किया है। समूचे भारतवर्ष में जैन स्थापत्यकला फैली हुई है। शैलोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों के अतिरिक्त पल्लव, चालुक्य, होयसल आदि सभी शैलियों में मन्दिरों का निर्माण हुआ है। चित्रकला भावाभिव्यक्ति का सुन्दरतम उदाहरण है । उसमें उपदेश और सन्देश देने की अनूठी क्षमता है। जैनाचार्यों ने जैन धर्म के प्रचार में इसका समुचित उपयोग किया है। नायाधम्मकहाओ, वरांगचरित, आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रंथों में चित्रकला का अच्छा वर्णन मिलता है। चित्रकला के भेदों में प्रमुख भेद है - भित्तिचित्र, कर्गलचित्र, काष्ठचित्र, पटचित्र, रंगावलि अथवा धूलिचित्र | प्राचीनतम भित्तिचित्र शित्तानावासल के जैन गुफा मन्दिर में मिलते हैं । वहाँ जलाशय का एक सुन्दर चित्र बनाया गया है। एलोरा और श्रवणवेलगोला के मठों में भी यह चित्र परम्परा दिखाई देती है । यह परम्परा 11वीं शती तक अधिक लोप्रिय रही। उसके बाद ताड़पत्रों पर चित्रांकन प्रारम्भ हो गया । मूडवद्री, पाटन आदि ग्रन्थ भण्डारों में यह चित्रांकन सुरक्षित है । कर्गल (कागज) चित्र लगभग 14वीं शती के बाद अधिक मिलते हैं । पाण्डुलिपियों में कथाओं को चित्रांकित किया जाता था । कालकाचार्य कथा शान्तिनाथचरित, सुपासनाहचरिय, यशोधरचरित, कल्पसूत्र आदि को चित्रों में बांधा गया है। इस चित्रांकन में समृद्धि शैली, तैमूर चित्र शैली आदि का उपयोग हुआ है। इनमें रंगयोजना, विविध मुद्रायें, वेश-भूषा तथा स्थापत्य की अनेक परम्पराओं का अंकन हुआ है । काष्ठ चित्र पाण्डुलिपियों पर लगे काष्ठफलकों पर बनाये जाते थे। इन पर विद्यादेवियों, तीर्थंकरों और पशु-पक्षियों तथा मानवाकृतियों का अंकन किया जाता था । राजस्थान और गुजरात में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार पटचित्र और धूलिचित्र के भी उल्लेख साहित्य में मिलते हैं । चित्रकला के इन विविध रूपों में जैन साधकों ने अपनी धार्मिक भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति की है। उसके माध्यम से अन्तर्वृत्तियों का उद्घाटन, मनोदशाओं का अभिव्यंजन तथा रूप - भावना और आकृति - सौन्दर्य का चित्रण बड़ी सफलतापूर्वक हुआ है। 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 130 www.jainelibrary.org

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