Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन कर समतावादी समाज-रचना में सहयोग कर सकते हैं। (ग) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत__उपभोग-परिभोग परिमाण-व्रत श्रावकों का एक अन्य व्रत है। दिक्परिमाणव्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर तथा वहाँ की वस्तुओं से निवृत्ति हो जाती है, किन्तु मर्यादित क्षेत्र के अन्दर और वहाँ की वस्तुओं के उपभोग (एक बार उपभोग), परिभोग (बारबार उपभोग) में भी अनावश्यक लाभ और संग्रह की वृत्ति न हो, इसके लिए इस व्रत का विधान है। जैन आगम में वर्णित इस व्रत की मर्यादा का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति का जीवन सादगीपूर्ण हो और वह स्वयं जीवित रहने के साथ-साथ दूसरों को भी जीवित रहने के अवसर और साधन प्रदान कर सकें। व्यर्थ के संग्रह और लोभ से निवृत्ति के लिए इन व्रतों का विशेष महत्त्व है। (घ) देशावकाशिक व्रत दिक्परिमाण एवं उपभोग-परिभोग परिमाण के साथ-साथ देशावकाशिक व्रत का भी विधान श्रावक के लिए किया गया है, जिसके अन्तर्गत दिन-प्रतिदिन उपभोगपरिभोग एवं दिकपरिमाण व्रत का और भी अधिक परिसीमन करने का उल्लेख किया गया है अर्थात् एक दिन-रात के लिए उस मर्यादा को कभी घटा देना, आवागमन के क्षेत्र एवं भोगोपभोग्य पदार्थों की मर्यादा कम कर देना, इस व्रत की व्यवस्था में है। श्रावक के लिए देशावकाशिक व्रत में 14 विषयों का चिन्तन कर प्रतिदिन के नियमों में मर्यादा का परिसीमन किया गया है। वे चौदह विषय हैं सचित्त दव्व विग्गई, पन्नी, ताम्बूल वत्थ कुसुमेसु। वाहक सयल विलेवण, बम्भ दिसि नाहण भत्तेसु॥1 इन नियमों से व्रत विषयक जो मर्यादा रखी जाती है, उसका संकोच होता है और आवश्यकताएँ उत्तरोत्तर सीमित होती हैं। उक्त सभी व्रतों में जिन मर्यादाओं की बात कही गयी है, वह व्यक्ति की अपनी इच्छा और शक्ति पर निर्भर है। भगवान महावीर ने यह नहीं कहा कि आवश्यकताएँ इतनी-इतनी सीमित हों। उनका मात्र संकेत इतना था कि व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अपनी शक्ति और सामर्थ्यवश आवश्यकताओं-इच्छाओं को परिसीमित व नियंत्रित करें, जिससे समतावादी समाज का निर्माण किया जा सके। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - - 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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