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सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है, प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है, अस्ति-नास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिनिधि शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेमपूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देते हैं। चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धसेन ने उद्धाविव समुदीर्णास्त्वयि नाथः दृष्ट्यः ! कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है। हरिभद्रसूरि की भी समन्वय-साधना इस संदर्भ में स्मरणीय है
भववीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य।
ब्रह्मा वा विष्णु र्वी हरो जिनो वो नमस्तस्मै॥ 7. अहिंसा और अपरिग्रह
जैन संस्कृति अहिंसा और परिग्रह मूलक है। इसलिए धर्म के गुणात्मक स्वरूप पर चिन्तन करते समय जैनाचार्यों ने व्यक्ति और समाज को परस्पर-निष्ठ बताया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोक मांगलिक है। व्यक्ति, समाज,राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से संभव है। धर्म के इस गुणात्मक स्वरूप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं
1. धम्मो दयाविसद्धो। 2. धम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो।
3. क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः। धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है, गुण भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है। क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा एक निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती है। अतः विधिपरक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेधात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा।
हिंसा का मूल कारण है-प्रमाद और कषाय। उसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भाव प्राणों
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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