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दुर्बलता से भरी विलासिता समाप्त हो जाती है, स्वार्थ और अहिंसा का विसर्जन हो जता है, परिशोधन और पवित्रता के आन्दोलन से यह जुड़ जाता है। वह भोग में भी योग खोज लेता है।
जैन संस्कृति मूलतः अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्ग्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। मुर्छा परिग्रह का पर्यायार्थक है। यह मुर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय आदि भव अंतरंग परिग्रह है और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह का साधन हिंसा है। झूठ, चोरी, कुशील उसके अनुवर्तक है और परिग्रह उसका मूल है। परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है। इस हिंसक वृत्ति से व्यक्ति तभी विमुख हो सकता है जब वह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करे। ___ क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मों का पालन भी धर्म है। मनुष्य गिरगिट स्वभावी है, अनेक चित्त वाला है। क्रोधादि विकारों के कारण वह बहुत भूलें कर डालता है। क्रोध विभाव है, परदोषदर्शी है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है।
परपदार्थों में कर्तृत्व बुद्धि से, मिथ्यादर्शन से क्रोध उत्पन्न होता है और क्षमा सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है। पञ्चम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौवे-दसवें गुणस्थान में महाव्रती के उत्तम क्षमा है पर नौंवें ग्रैवेयक तक पहुंचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी के उत्तम क्षमा नहीं होती।
__मार्दव मान का विरोधी भाव माना है। दु:ख अपमान में नहीं, मान की आकांक्षा में है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, समृद्धि, तप, आयु और बल के अभिमान से दूसरे को नीचे दिखाने का भाव पैदा होता है। इससे सत्य की खोज नहीं हो पाती। बिना विनय के भक्ति
और आत्मसमर्पण कहाँ प्रतिक्रिया और प्रतिशोध को जन्म देने वाले अहङ्कार को समाप्त किये बिना जीवन का बदलना संभव नहीं है। इसी तरह माया, लाभ आदि विकार भावों को भी विनष्ट किये बिना परम शान्ति नहीं मिलती।
धर्म आत्मस्थिति का मार्ग है, आत्मनिरीक्षण का पथ है। ऋजुता आये बिना धर्म का मर्म पाया नहीं जा सकता। शौचधर्म में चरित्र विशुद्ध हो जाता है और अकषाय की स्थिति आ जाती है और लोभ चला जाता है । सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि धर्म भी आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इन धर्मों का पालन करने से संकल्प शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान-साधना कर आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूबने लगता है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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