Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 60
________________ का हनन होता है। कषादायिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य गुणों का हनन होता है। इसके अतिरिक्त दूसरे को मर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यपरोपण भी इन्हीं भावों का कारण है । इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना-फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना चाहिए ? इसका विधान मूलाचार, दशवैकालिक आदि ग्रंथों में उपलब्ध है। समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूयेसु संजमों । उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं । मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है । शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका हित मलीन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता । जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगड़ना इन उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है 1 धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो ॥ 7 संजमु सीलु सउज्जु तवु सुरि हि गुरु सोई । दाहक - छेदक - संघायकसु उत्तम कंचणु होई ॥18 पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन निषेध, देव - दर्शन, अष्टमूल गुणों का परिपालन, निर्व्यसनी जीवन, समन्वयात्मक दृष्टि आदि कुछ ऐसे नियमों का विधान इसीलिए किया गया है कि साधक अहिंसक और संयमी बनकर अहिंसक समाज की रचना कर सके । जीवन का सर्वाङ्गीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है । सूत्रकृतांग में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है, किन्तु भय की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यंग प्रच्छन्न कर लेता है और भय - विमुक्त होने पर पुनः अंगप्रत्यंग फैलाकर चलना-फिरना प्रारंभ कर देता है । उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कतापूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान में ही गोपन कर लेता है । मैत्री, करुणा, मुदिता और माध्यस्थ भाव समभाव की परिधि में आते हैं । समभावी व्यक्ति समाचारिता का पालक और सर्वोदयशीलता का धारक होता है । अध्यात्म का संबंध अनुभूति से है और हिंसा - अहिंसा का संबंध जैसे अध्यवसायसंकल्प से है। अध्यात्म और संकल्प से आस्था की सृष्टि होती है जिससे मानसिक तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 55 www.jainelibrary.org

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