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साथ जुड़ा हुआ है। आचार्य हरिभद्रसूरि, जिनमण्डनगणि, पण्डित आशाधर आदि चिन्तकों ने श्रावक के गुणों की एक लम्बी सूची दी है जिसमें सत्संग, शुश्रूषा, करुणा, सत्कार, कृतज्ञता, परोपकार आदि गुण उल्लेखनीय हैं। इन गुणों में भी न्यायपूर्वक धन कमाना, शाकाहारी वृत्ति रखना और करुणाशील होना श्रावक की पहचान कही जा सकती है
न्यायोपात्तधनो यजत्गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन्नयोन्यानुगुणं तदर्हगृहिणो-स्थानालयो हीमयः । युक्ताहारविहारआर्य-समितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी
शृण्वन् धर्मविधि दयालु धर्मीः सागारधर्मं चरेत्॥ 6. अनेकान्तवाद
मानवीय एकता, सह अस्तित्व, समानता और सर्वोदयता धर्म के तात्त्विक अंग हैं। तथाकथित धार्मिक विज्ञान और आचार्य इन अंगों को तोड़-मरोड़कर स्वार्थवश वर्गभेद
और वर्णभेद जैसी विचित्र धारणाओं की विषैली आग को पैदा कर देते हैं जिसमें समाज की भेड़ियाधसान वाली वृत्ति वैचारिक धरातल से असम्बद्ध होकर कूद पड़ती है। उसके सारे समीकरण झुलस जाते हैं। दृष्टि से हिंसक व्यवहार अपने पूरे शक्तिशाली स्वर में गूंजने लगता है, शोषण की मनोवृत्ति सहानुभूति और सामाजिकता की भावना को दूषित कर देती है, वैयक्तिक और सामूहिक शान्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इस दुर्व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी एकान्तवादी चिन्तकों के सबल हिंसक कन्धों पर है जिसने समाज को एक भटकाव दिया है, अशान्ति का एक आकार-प्राकार खड़ा किया है और पड़ोसी को पड़ोसी जैसा रहने में संकोच, वितृष्णा और मर्यादाहीन भरे व्यवहारों को लौहिक दीवाल को गढ़ दिया है।
अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन इन सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नई दिशा दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह संभाल कर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में प्राण फूंक देता है। तब संषर्घ के स्वर बदल जाते हैं। समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिये, अपने वैयक्तिक एकपक्षीय विचारों की आहुति देने के लिए, दूसरे के दृष्टिकोण को समान देने के लिए और निष्पक्षता, निर्वैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल-धूसरित होने से बचाने के लिये।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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