Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 56
________________ समता मानवता का रस है। बर्बरता, पशुता, संकीर्णता उसका प्रतिक्षी स्वभाव है। राग-द्वेषादि भाव उसके विकार-तन्तु हैं। ऋजुता, निष्कपटता, विनम्रता और प्रशान्तवृत्ति उसकी परिणति है। सहिष्णुता और सच्चरित्रता उसका धर्म है। यद्यपि सापेक्षता व्यापकता लिये हुए रहती है पर मानवता के साथ सापेक्षता को सम्बद्ध करना उसके तथ्यात्मक स्वरूप को आवृत्त करता है। इसलिए समता की सत्ता मानवता की सत्ता में निहित है। ये दोनों सत्तायें आत्मा की विशुद्ध अवस्था के गुण हैं । इन गुणों से समवेत व्यक्तित्व को ही साधु कहा जा सकता है समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होई, तवेणं होइ तावसो॥" व्यवहारतः मानवता के साथ सापेक्षता के आधार पर विचार किया भी जा सकता है पर वास्तविक समता उससे दूर रहती है। समता में यदि, और तो का संबंध बैठता ही नहीं। वह तो समुद्र के समान गंभीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील और आकाश के समान स्वच्छ तथा व्यापक है। इसलिए समता का सही रूप धर्म है। यही उसका धर्म है। यही समता और धार्मिक चेतनता सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना का अविनाभावी अंग है जिसमें धृति और सहिष्णुता, अहिंसा और संवेग-नियन्त्रण जैसे तत्त्व आपाद समाहित हैं। कर्मों का उपशमन और मोक्ष की प्राप्ति भी समता का ही परिणाम होता है। जैन संस्कृति सामाजिक समता की पक्षधर है। उसमें जाति के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया गया है और स्वयं के पुरुषार्थ को प्रस्थापित किया गया है। यही पुरुषार्थ कल का नियति बन जाता है। इसलिये यहाँ ईश्वर का नहीं, पुरुषार्थ का सर्वोपरि स्थान है। 5. चारित्रिक विशुद्धि धर्म को शाश्वत और चिरन्तन सुखदायी माना गया है पर उसके वैविध्य रूप में यह शाश्वतता धूमिल-सी होने लगती है। समता का स्वरूप धूमिल होने की स्थिति में कभी नहीं आता। वह तो विकारी भावों की असत्ता में ही जन्म लेता है। क्रोधादिक विकारी भाव असमता विनम्रता, उद्धत्तता और संसरणशीलता की पृष्ठभूमि में प्रादुर्भूत होते हैं । सम्यग्दर्शन, 'सम्यग्ज्ञान और सम्यक्त्वचारित्र के समन्वित रूप की साधना से ही ये विकारभाव तिरोहित होते हैं और वही सही रूप है। आस्था इसकी आधारभूमि है। चारित्र का सम्यक् परिपालन किये बिना दर्शन और ज्ञान की आराधना हो नहीं सकती। दर्शन और ज्ञान, आत्मशक्ति, आत्मविश्वास और आत्मज्ञान के प्रतीक हैं जो समता के मूल कारण हैं। इसलिए चारित्र को धर्म कहा गया है और धर्म ही यथार्थ जीवन है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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