Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ धर्म तथा समता को राग-द्वेषादिक विकारभावों की अभावात्मक स्थिति कहा जाता है। ममत्व का विसर्जन और सहिष्णुता का सर्जन उसके आवश्यक अंग हैं। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना तथा भौतिकता की विषादाग्नि को आध्यात्मिकता के शीतल जल से शमन करना समता की अपेक्षित तत्त्व दृष्टि है। सहयोग, सद्भाव, समन्वय और संयम उसके महास्तम्भ हैं। श्रमण का यही सही रूप है, स्वरूप है। इसी को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार कहा है : चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिट्ठिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो॥ सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवत्तिओगो त्ति॥ समता आत्मा का सच्चा धर्म है, इसलिए आत्मा को समय भी कहा जाता है। समय की गहन और विशद व्याख्या करने वाले दशवैकालिक, समयसार आदि ग्रन्थ इस संदर्भ में द्रष्टव्य है। सामायिक जैसी क्रियायें उसके फील्ड वर्क हैं। अहिंसा उसी का अंग है। वह तो एक निर्द्वन्द्व और शून्य अवस्था है जिसमें व्यक्ति निष्पक्ष, वीतराग, सुख-दुःख में निर्लिप्त प्रशंसा-निन्दा में निरासक्त, लोष्ठ-कांचन में निर्लिप्त तथा जीवन-मरण में निर्भय रहता है। यही श्रमण अवस्था है। वीतरागता से जुड़ी हुई समता आध्यात्मिक समता है. जो आगमों और कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में दिखाई देती है। माध्यस्थ भाव से जुड़ी हुई समता दार्शनिक समता है जिसे हम स्याद्वाद, अनेकान्तवाद किंवा विभज्यवाद में देख सकते हैं तथा कारुण्यमूलक समता पर व्यक्ति की विखण्डित, दरिद्र, पतित और वीभत्स अवस्था देखकर/अनुभवकर राजनीति के कुछ वाद प्रस्थापित हुए हैं। मार्क्स का साम्यवाद ऐसी ही पृष्ठभूमि लिये हुए हैं। गांधीजी का सर्वोदयवाद महावीर के सर्वोदय तीर्थ पर आधारित है जिसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य समन्तभद्र (ई. दूसरी, तीसरी सदी) ने किया था। सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥ चारित्रिक विशुद्धि की आधारशिला वस्तुतः परिवार है और परिवार का धर्म है गृहस्थ धर्म, जिसे जैन संस्कृति में श्रावक या उपासक धर्म कहा जाता है। वह साधु सन्तों से उपदेश सुनकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है। पारिवारिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना का जीवन सदाचारमय होना चाहिए। सामाजिक कर्त्तव्य भी उसके 52 - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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