Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 25
________________ गणित को सम्मिलित कर दिया है22 अथवा यह कहा जाये कि स्थानांग की गाथा के विषयों को दे दिया है। इसका क्या कारण है ? संभवत: उद्धृत करने की त्रुटि है। पुनः दृष्टव्य है कि मूल गाथा (5) में भी कुछ ऐसा नहीं है जो मूल शब्द को ध्वनित करता हो। दत्त ने भी लिखा है There is nothing in the either form which could be informed a reference to roots (mula) Above all by that interpretation, he has made the number of topics for discussion to be eleven against the express injuction of the conanical works that they are all together ten. So we shall reject the rendering of the verse (sanskrit Version). अब प्रश्न यह उठता है कि क्या पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना जाये? इस सन्दर्भ में दत्त महोदय ने तो स्पष्ट लिखा है कि- Pudgals as a topic for discussion in mathematics is meaningless. अर्थात् पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय स्वीकार करना निरर्थक है। किन्तु विचारणीय यह है कि निष्कर्ष आपके द्वारा तब दिया गया था जब कर्म सिद्धान्त का गणित प्रकाश में नहीं आया था। उस समय तक Relativity के सन्दर्भ में जैनाचार्यों के प्रयास भी प्रकाशित नहीं हुये थे। आज परिवर्तित स्थिति में यह निष्कर्ष इतना सुगमता से गले नहीं उतरता, क्योंकि असंख्यात विषयक गणित, राशि गणित (Set theory) आदि का मूल तो पुद्गल ही है। एक तथ्य यह भी है कि शीलांक ने भी तो इसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से ही उद्धृत किया होगा। लेकिन समस्या यह है कि पुद्गल को गणित का विषय स्वीकार करने पर विकल्प छूट जाता है जबकि विकल्प तो अत्यधिक एवं निर्विकल्प रूप से जैन ग्रंथों में आता है। यहाँ हमें वृहत्कल्प भाष्य की एक पंक्ति कुछ मदद करती है- "भंग गणिताइ गमिकं''23 । मलयगिरि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि भंग (विकल्प) एवं गणित अलग-अलग है।24 संक्षेप में यह विषय विचारणीय है एवं अभी यह निर्णय करना उपयुक्त नहीं है कि पुद्गल को गणितीय अध्ययन का विषय किया जाये अथवा नहीं। स्थानांग सूत्र के ही चतुर्थ अध्याय में एतद्विषयक एक अन्य गाथा प्राप्त होती हैचउविधि संरवाणे पण्णत्ते तं जहा। परिकम्म ववहारे वज्जु रासी॥25 इस गाथा पर अद्यावधि किसी ने ध्यान नहीं दिया है। एक ही ग्रन्थ में दो प्रकार के 20 जा अंक 130 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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