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उपनिषद् हमसे धर्माचरण करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्त्तव्यों के पालन से होता है, जिसमें कि हम विद्यमान हैं। इस अर्थ में शब्द का प्रयोग भगवद्गीता और मनुस्मृति दोनों में हुआ है। बौद्ध धर्म के लिए यह शब्द धर्म, बुद्ध और संघ या समाज के साथ-साथ त्रिरत्न में से एक है। पूर्व मीमांसा के अनुसार धर्म एक वांछनीय वस्तु है, जिसकी विशेषता है प्रेरणा देना- चोदना लक्षणार्थों धर्मः । वैशेषिक सूत्रों में धर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जिससे आनन्द (अभ्युदय) और परमानन्द (निःश्रेयस्) की प्राप्ति हो, वह धर्म है - यतोभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
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जैनधर्म आर्ह धर्म है। उसकी संस्कृति वीतरागता से उद्भूत हुई है जहां कर्मों को नष्ट कर, उनकी निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता है । इसलिए जैनाचार्यों ने अपनी संस्कृति के मूल में धर्म को संयोजित किया है और उसे जीवन में हर पक्ष से जोड़ने का प्रयत्न किया है। जैन संस्कृति को समझने के लिए उसमें निहित धर्म की विविध परिभाषाओं को समझना आवश्यक है। इन परिभाषाओं को हम स्थूल रूप से इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं
1. धर्म का सामान्य स्वरूप
2. धर्म का स्वभावात्मक
3. धर्म का गुणात्मक स्वरूप
4. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप ।
इन स्वरूपों के माध्यम से ही हम जैन संस्कृति की मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयन करेंगे।
2. आत्मा ही परमात्मा है
जैनधर्म आत्मवादी धर्म है । संसारी आत्मा ही कर्मों का स्वयं विनाश कर परमात्मा बन जाता है । इसलिए सभी जैनाचार्यों ने सामान्यतः धर्म उसे कहा है, जो सांसारिक दुःखों से उठाकर उत्तम वीतराग सुख में पहुंचाये । यथा
1. संसारदुःखतः, सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुख
2. इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म : 1
3. यस्माज्जीवं नारक-तिर्यग्योनिकुमानुष - देवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्म।
जैनाचार्यों की धर्म की इन परिभाषाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति को प्रथमतः सांसारिक दुःखों से परिचित कराना चाहते हैं और फिर आत्मा की विशुद्धि
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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