Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ उपनिषद् के अनुसार रात्रि के प्रथम प्रहर में देखे गए स्वप्न का फल बारह महीने में, दूसरे प्रहर में देखे स्वप्न का फल छह मास में, तीसरे प्रहर में देखे स्वप्न का फल तीन महीने से, चौथे प्रहर में देखे स्वप्न का फल पन्द्रह दिनों में तथा अरुणोदय के समय देखे स्वप्न का फल तुरन्त मिलता है। प्रात:कालीन देखे गए स्वप्न सत्य होने का एक कारण यह हो सकता है कि उस समय शरीर थकान और तनाव से मुक्त होकर नितान्त सहज अवस्था में रहता है। शुभ स्वप्न देखकर फिर नहीं सोना चाहिए। नींद लेने से अथवा फिर अशुभ स्वप्न देखने से पूर्व दृष्ट स्वप्न का फल मंद या क्षीण हो जाता है। आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर शुभ स्वप्न देखने के बाद धर्म जागरण पूर्वक रात्रि बिताने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में स्वप्न के अनिष्ट फल को दूर करने के लिए वरुण से एक प्रार्थना की गयी है कि मित्रों ने जो स्वप्न के बारे में भयंकर बातें बताई हैं, उनसे मेरी रक्षा करो। इस प्रार्थना से स्पष्ट है कि स्वप्न के अनिष्ट फल को दूर करने के लिए देवताओं से प्रार्थना की जाती थी। दुःस्वप्न आने पर उसके अनिष्ट फल को दूर करने के लिए ऋग्वेद में निम्न सूक्त मिलता- 'दुःस्वप्न जनित पाप से निवृत्त होता हूँ । सम्पत्ति-हीनता से दूर होता हूँ। दुःस्वप्न निवारक मंत्र को मैंने कवच के समान धारण कर लिया है, इसलिए मेरे शोकादि भाग जाएं। रात्रेश्चतुर्षु यामेषु, दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः। मासै दशाभिः षड्भिस्त्रिभिरेकेन च क्रमात्॥ निशान्त्यघटिका युग्मे, दशाहात् फलति ध्रुवम्। दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः, सद्यः फलति निश्चितम्॥ स्वप्न कब? स्वप्न कब आता है, इस बारे में अनेक वैज्ञानिकों ने खोज की है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार सोने के 80 या 90 मिनिट बाद मस्तिष्क में उन्माद का संचार होता है, रासायनिक क्रियाएं प्रारंभ होती है और स्वप्न आने प्रारम्भ हो जाते हैं। गौतम के द्वारा प्रश्न पूछने पर महावीर ने कहा कि स्वप्न न जागृत अवस्था में आता है और न ही पूर्ण निद्रित ____अवस्था में ,अर्ध निद्रित अवस्था में स्वप्न आते हैं।'' जागते हुए आंखें खुली रहती हैं, चेतना चंचल रहती है, इसलिए स्वप्न नहीं आ सकते। गहरी नींद में स्नायु पूर्ण 30 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122