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स्वप्न-विज्ञान
समणी कुसुम प्रज्ञा
स्वप्न का मानव-जीवन के साथ गहरा सम्बन्ध है। अन्य मानसिक क्रियाओं की भांति स्वप्न भी एक मानसिक क्रिया है। संसार का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसने कभी स्वप्न न देखा हो। विज्ञान के अनुसार दृष्टिहीन व्यक्ति एवं पशु-पक्षी भी स्वप्न देखते हैं। स्वप्न मनुष्य की अव्यक्त एवं सुप्त भावनाओं के प्रतिबिम्ब हैं। मनोवैज्ञानिक क्लीटमन के अनुसार अमूर्त विचार ही स्वप्न में मूर्तिमान् रूप में प्रस्तुत होते हैं। स्वप्नावस्था में व्यक्ति देशातीत और कालातीत होकर मुक्त रूप से विचरण करता है। अतः यह निद्रावस्था का गतिशील अनुभव है। मनोवैज्ञानिक स्वप्नों को तनाव एवं अन्तर्द्वन्द्वों से मुक्ति पाने का ईश्वरीय वरदान मानते हैं। उनके अनुसार सपने में व्यक्ति जागृत अवस्था की अपेक्षा अधिक चैतन्य एवं शक्तिसम्पन्न होता है।
प्राचीन ग्रंथों में स्वप्न ज्योतिषशास्त्र का विषय रहा लेकिन आधुनिक शिक्षाप्रणाली में स्वप्न मनोविज्ञान का विषय है। आगम साहित्य में स्वप्नों को अष्टांग महानिमित्त के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। प्राचीन काल में स्वप्नविद्या आजीविका चलाने का साधन भी थी। माण्डूक्य उपनिषद् में मन की तीन अवस्थाओं का उल्लेख है, जिसमें एक अवस्था स्वप्नावस्था है। व्यवहार भाष्य में 'स्वप्न भावना' नामक ग्रंथ का उल्लेख मिलता है, जिसे चौदह वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला साधु पढ़ सकता था, आज वह ग्रंथ अनुपलब्ध है। ___यूनान और प्राचीन मिश्र में स्वप्न ईश्वरीय संदेश माने जाते थे। वहां स्वप्न के आधार पर ही भावी कार्यक्रम युद्ध आदि का निर्णय किया जाता था। हम स्वप्न क्यों देखते हैं ? उनका फल क्या होता है ? हमारे वास्तविक जीवन के संदर्भ में उनकी क्या स्थिति है ? इन प्रश्नों पर भारतीय मनीषियों ने गहराई से चिंतन किया है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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