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उल्लेख क्यों हैं? क्या संख्यान के चार प्रकार पिछले पृष्ठ पर उद्धृत दत्त के निष्कर्ष के प्रतिकूल हैं ? क्या यहाँ संख्यान के प्रकार कोई विशेष गुण रखते हैं ? इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है।
मैं आचार्य श्री तुलसी जी के सम्मुख 3-6 नवम्बर, 1986 को लाडनूँ में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या संगोष्ठी में इस विषय की विस्तार से चर्चा की थी एवं मेरा शोध पत्र 'तुलसी प्रज्ञा' के दो अंकों में प्रकाशित हुआ था, 26 जिसमें इन दसों विषयों की विवेचना हैं
द्रष्टव्य
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जैन आगमों में गणितीय सामग्री के अध्ययन के क्रम में अब तक अनेक स्फुट प्रयास हुये हैं जिनकी सूची निम्नवत् है । इसके हर शोध पत्र एवं पुस्तक में कुछ न कुछ नया है किन्तु कोई भी पूर्ण नहीं हैं ।
B.B. Dutt
1929
The Jaina School of Mathematics, B.C.M.S. (Calcutta ), pp. 115-143
B.B. Dutt & A.N. Singh 1935-38 History of Hindu Mathematics 2 vols. Motital Banarasi Das, Reprited combibed Edition. Asia Publishing House, 196, Reprinted mittal Publication, Delhi, 2001
H.R. Kapadia
ब. ल. उपाध्याय
1987
मुकुटबिहारीलाल अग्रवाल 1972
अनुपम जैन
1937
Jain Education International
1980
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
Introducion of Ganita Tilaka Published with Ganita Tilaka of Simha Tilaksuri, Gaikwad Oriental Seies, Baroda, pp. IV-LXXVIII
प्राचीन भारतीयय गणित, दिल्ली
गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, शोध प्रबन्ध आगरा वि. वि.,
आगरा
अर्द्धमागधी आगमों एवं उनकी टीकाओं में निहित गणितीय सिद्धान्त अन्तर्गत गणित के विकास में जैनाचार्यों का योगदान M. Phil योजना का विवरण, मेरठ वि. वि. मेरठ, पृ. 36-70
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