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जैनदर्शन में दान और त्याग जैसी जनकल्याणकारी वृत्तियों का विशेष महत्त्व है। आवश्यकता से अधिक संचय न करना और मर्यादा से अधिक जरूरतमंद लोगों में वितरित कर देने की भावना समाज के प्रति कर्त्तव्य व दायित्व बोध के साथ-साथ जनतांत्रिक समाजवादी शासन व्यवस्था को जन्म देना कहा जा सकता है । दान का उद्देश्य समाज में ऊँच-नीच कायम करना नहीं, वरन् जीवन-रक्षा के लिए आवश्यक वस्तुओं का सम-वितरण करना है। दान केवल अर्थ दान तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि आहारदान, औषधिदान, ज्ञानदान तथा अभयदान इन रूपों में भी दान को जैन दृष्टिकोण से समझाया गया है। अतः अर्थ का अर्जन के साथ-साथ विसर्जन करके समाज को नया रूप दिया जा सकता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन में जिन आर्थिक तत्त्वों का गुम्फन किया गया है, उनकी आज के सन्दर्भ में बड़ी प्रासंगिकता है और धर्म तथा अर्थ की चेतना परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे की पूरक है।
सन्दर्भ-सूची 1. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिते- आचारांगसूत्र, 5/3/45 2. मूलाचार 7/521 3. प्रवचनसार 1/84 4. मोहक्खोहविहीणो परिमाणो अप्पणो हु समो।- प्रवचनसार 1/7 5. कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ --उत्तराध्ययनसूत्र 25/33 6. समणसुतं-86 7. दशवैकालिक 1/1 8. आचारांगसूत्र 9. इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया ।।9-48- उत्तराध्ययनसूत्र 9/48 10. सुवण्णरूपस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स ण तेहिं किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया॥ उत्तराध्ययनसूत्र 9/48 11. 1. सचित्तवस्तु, 2. द्रव्य, 3. विगय, 4. जूते, 5. पान, 6. वस्त्र, 7. पुष्प, 8. वाहन, 9. शयन, 10. विलेपन, 11. ब्रह्मचर्य, 12. दिशा, 13. स्नान, 14. भोजन।
प्राकृत एवं जैनागम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं- 341 306 (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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