Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ जैन अर्द्धमागधी आगमों में निहित गणित डॉ. अनुपम जैन जैन-धर्म विश्व का प्राचीनतम जीवित धर्म है। यद्यपि जैन परम्परा इसे अनादि निधन प्राकृतिक धर्म मानती है तथापि इसका उपलब्ध साहित्य 2500 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। हमारे पास उपलब्ध जैन साहित्य चौबीसवें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर (599-527 ई. पू.) के बाद का है। ___ जैन मान्यतानुसार तीर्थंकर, जिन्हें अर्हत् संज्ञा भी दी जाती है, अपने अनंत ज्ञान के आलोक में विश्व दर्शन का दिव्य ध्वनि के रूप में सत्य को उद्भासित करते हैं एवं गणधर उसे सूत्र रूप में गूंथते हैं। यह सूत्र रूप में निबद्ध ज्ञान राशि ही 'आगम' नाम से जानी जाती है। प्रकारान्तर से आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम की संज्ञा दी जाती है। जैन-आगम साहित्य भारतीय साहित्य की अनमोल निधि, अनुपम उपलब्धि एवं ज्ञान का अक्षय स्रोत है। भगवान महावीर अथवा उनकी शिष्य परम्परा केवली, श्रुत केवली आदि विशिष्ट ज्ञान के धारी आचार्यों द्वारा रचित/ संकलित (परम्परित ज्ञान के आधार पर) साहित्य को आगम की श्रेणी में रखा जाता है। जैन मान्यता के अनुसार उनका समस्त आगम साहित्य भगवान महावीर के उपदेशों के आधार पर उनके परम्परानुवर्ती शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। अधिकांश आगम ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है किन्तु वे इसकी दो भिन्न शैलियों शौरसेनी एवं अर्द्धमागधी में विभाजित हैं। दिगम्बर परम्परा के आगमों की भाषा शौरसेनी प्राकृत तथा श्वेताम्बर परम्परा के आगमों की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत है। बहुश्रुत भारतीय गणितज्ञ आचार्य महावीर (814-877 ई.) ने गणितसार संग्रह में लिखा है - तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - - 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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