Book Title: Tulsi Prajna 2006 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ की श्रेणी में रखकर कुल 84 ग्रन्थों को आगम की संज्ञा देते हैं। जैन धर्म की तेरापंथ (श्वेताम्बर) परम्परा 11 अंग, 12 उपांग, 5 मूल सूत्र एवं 4 छेद सूत्रों (कुल 32) को ही प्रामाणिक मानती है। किन्तु इनकी प्रमाणिकता अथवा अप्रमाणिकता हमारे विवाद का विषय नहीं हैं, अत: हम इस विषय को यहीं छोड़ देते हैं। इतना निश्चित है कि उपरोक्त ग्रंथ अर्द्धमागधी भाषा के श्रेष्ठ ग्रंथ हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान की अनेक विधाओं के साथ ही गणित सम्बन्धी विपुल सामग्री निहित है। जैन आगमों में भी चिह्नाकित आगम गणितीय दृष्टि से विशेष महत्त्व के हैं। __जैन आगम ग्रन्थों में स्थानांग (ठाणं) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अंग साहित्य में यह तृतीय स्थान पर आता है। मूल रूप से लगभग 300 ई. पू. में सृजित एवं 5वीं श.ई. में अपने वर्तमान रूप में संकलित इस अंग के दसवें अध्याय में निहित 100 वीं गाथा गणितज्ञों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस गाथा से हमें गणित के अन्तर्गत अध्ययन के विषयों की जानकारी मिलती है। परोक्ष रूप से यह माना जा सकता है कि ये विषय आगम में भी उपलब्ध होंगे, क्योंकि तीर्थंकर महावीर को संख्या ज्ञान के संकलन मात्र है। स्थानांग सूत्र में उपलब्ध यह गाथा स्थानांग के विविध मुद्रित संस्करणों में निम्न प्रकार पाई जाती है दस विघे संखाणे पणत्ते तं जहापरिकम्म ववहारों रज्जु रासी कलासवण्णे य। जावंतावति वग्गो धणो य (त) तह वग्गवग्गो वि॥ कप्पो प. (त)......1 उपर्युक्त रूप के अतिरिक्त कई गणित इतिहासज्ञों ने इसे निम्न रूप में भी उद्धृत किया है परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी कलासवन्ने (कलासवण्णे) य। जावंतावति वग्गो धनो ततह वग्ग वग्गो विकल्पो त ॥ .........2 उक्त रूप में गाथा को दत्त एवं उपाध्याय ने उद्धृत किया है जबकि कापडिया ने इसे निम्न रूप में उद्धृत किया है परिकम्म 1 ववहारो 2 रज्जु 3 रासी 4. कलासवन्ने 5 य। जावंतावति 6 वग्गो 7 घणो 8 ततह वग्गो 9 विकप्पो त ॥ ............ ठाण12 की 1 की संस्कृत छाया निम्न दी गई हैपरिकर्म व्यवहार रज्जु राशि कलासवर्ण च। यावत् तावत् इति वर्ग धनश्च तथा वर्गवगोपि॥ कल्पश्च ..........4 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - - 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122