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जिसके द्वारा वस्तु का ग्रहण होता है, वही शान है ।" सम्यक्दृष्टि से जो ज्ञान कहलाता है वही मिथ्यादृष्टि से अज्ञान कहलाता है ।२ मति, श्रुत एवं अवधि-ये ज्ञान सम्यक् एवं मिथ्या दोनों ही प्रकार से हो सकते हैं। सामान्यतः मति के दो भेद होते हैंमतिज्ञान और मति-अज्ञान । उसको विश्लेषित करने से ज्ञात होता है कि वह सम्यक दृष्टि के मतिज्ञान है एवं मिथ्यादृष्टि के मति अज्ञान है । मति अज्ञान भी ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम रूप है किन्तु उस ज्ञान के धारक व्यक्ति की दृष्टि मिथ्या है अतः दर्शन मोहकर्म के उदय के कारण क्षायोपशामक ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है। यह अज्ञान संसार बृद्धि एवं परिभ्रमण का हेतु बनता है। ज्ञानावरण के उदय से औदयिक भावरूप जो अज्ञान है उसकी वक्तव्यता प्रस्तुत प्रकरण में नहीं है । औदयिक अज्ञान ज्ञान अभाव है। जबकि मिथ्याज्ञान कुत्सित ज्ञान है। इस प्रकार अज्ञान में आगत नञ् का एक स्थान पर अभाव एवं एक स्थान पर कुत्सित अर्थ होगा।
जीव की क्रमिक आत्म-विशुद्धि के आधार पर जन-परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा है । कर्म-विशुद्धि की अपेक्षा से चौदह गुणस्थान जीवस्थान माने गए हैं । मिथ्याज्ञान प्रथम एवं तृतीय, इन दो गुणस्थानों में ही होता है। क्योंकि इन दो गुणस्थानों में ही मिथ्यात्वी जीव स्थित है। प्रथम गुणस्थान मिथ्यादृष्टि एवं तृतीय मिश्र गुणस्थान है । ज्ञान का अभाव रूप अज्ञान तो प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है। केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही उदयभाव अज्ञान नष्ट होता है। उदयभाव रूप अज्ञान सम्यक्त्वी एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। प्रथम एवं तृतीय गुणस्थान को छोड़कर अवशिष्ट सभी गुणस्थानों में सम्यक् ज्ञान माना गया है। यद्यपि सम्यक्दृष्टि को भी पदार्थों का विपरीत ज्ञान हो सकता है। रज्जू में सर्प का भ्रम हो सकता है पर वह कुत्सित ज्ञान नहीं कहलाता है।
__ अयथार्थ ज्ञान के दो पक्ष होते हैं-आध्यात्मिक और व्यावहारिक । आध्यात्मिक विपर्यय को मिथ्यात्व एवं आध्यात्मिक संशय को मिश्र मोह कहा जाता है। इनका उद्भव आत्मा की मोह दशा से होता है। इससे श्रद्धा विकृत होती है । व्यावहारिक संशय और विपर्यय का नाम समारोप है। यह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है। इससे ज्ञान यथार्थ नहीं होता है। पहला पक्ष दृष्टि मोह है तथा दूसरा पक्ष ज्ञान-मोह इनका भेद समझाते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-तत्त्व श्रद्धा में विपर्यय होने पर मिथ्यात्व होता है। अन्यत्र विपर्यय होता है, तब ज्ञान असत्य होता है किन्तु मिथ्या नहीं बनता।" दृष्टि मोह मिथ्यादृष्टि के ही होता है। जबकि ज्ञान-मोह सम्यक्ष्टि एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। अत: उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान के सम्यक् एवं मिथ्या होने में पात्र की अपेक्षा, उसके धारक व्यक्ति के आधार पर है। जयाचार्य ने भी इसी को स्पष्ट किया है। अध्यात्म साधना में सर्वप्रथम दृष्टि का परिमार्जन आवश्यक माना जाता है । दृष्टि परिशुद्ध होते ही ज्ञान स्वतः ही सम्यक् बन जाता है । ज्ञान को सम्यक् बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती है । जैन दर्शन में दृष्टि विशुद्धि को ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ज्ञान एवं चारित्र की विशुद्धता उसके ऊपर ही निर्भर रहती है अतः कहा जाता है-चरित्र भ्रष्ट की तो
खण्ड २१, अंक १
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