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६. स्वाध्याय प्रेमी
__ स्वाध्याय का अर्थ है-सद्ग्रंथों का अध्ययन करना । भिक्षु को आत्म-दर्शन के लिए स्वाध्याय-प्रेमी होना आवश्यक है । दसर्वकालिक में भिक्षु को सदैव सज्झायम्मि रओ सया' अर्थात् स्वाध्याय में रत रहने को कहा है । धम्मपद में कहा है
___ असज्झायमलामन्ता...'स्वाध्याय न करना मंत्रों का मल है। इसलिए भिक्षु को स्वाध्याय में तल्लीन होना चाहिए । जो स्वाध्याय करता है उसके पाप कर्म क्षीण होते हैं, आत्मा निर्मल होती है। १०. ध्यानी
चित्त को स्थिर, शान्त करने के लिए भिक्षु को ध्यानस्थ और आत्मस्थ होना चाहिए, जो आत्मस्थ होता है, वह दिव्यता को प्राप्त करता है और सम्यक् धर्म का अनुपालन करता है । दसवैकालिक और धम्मपद-दोनों में अनेक स्थलों पर भिक्षु को ध्यानस्थ होने का निर्देश दिया गया है
....... 'धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ।१२ २. झाय भिक्खू......................... ।
३. अप्पमत्तो हि झायन्तो............ २४ ११. तपस्वी
तवे रए सामणिए जे स भिक्खू --भिक्षु वह है जो श्रमण संबंधी तप में रत रहता है । तप में तल्लीन रहने वाला आत्मानन्द को प्राप्त होता है। दसवैकालिक में भी कहा है-'तवसा धुणइ पुराण पावगं२५–अर्थात् तपस्या से पुराने पाप कर्म क्षीण होते है। इसलिए भिक्षु को निरन्तर तप करने चाहिए । धम्मपद में भी तप की महिमा बतलाई है।
....... 'खीणासवा जुतीमन्तो ते लोके परिनिब्बुता ।२६ अर्थात् संसार में परिनिर्वाण को वही व्यक्ति प्राप्त होता है जो ज्ञान और तप में रत रहकर आश्रव को क्षीण करता है। और वही भिक्षु कहलाता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ऊर्ध्वगामी चेतनाएं समत्व में स्थित होती हैं और जो कुछ उनकी शाब्दिक अभिव्यक्तियां होती हैं, वे भी समता की ध्वनि से ही युक्त होती हैं । दो विभिन्न धाराओं के प्रतिनिधि ग्रंथ-दशवकालिक और धम्मपद भिक्षु स्वरूप में पूर्णतया एक ही शब्दावली का प्रयोग करते हैं । और दोनों मैं भिक्षु के जो आन्तरिक गुण निर्दिष्ट किए गये हैं, उनसे यह विदित होता है कि दोनों परम्पराओं का एक ही लक्ष्य था –निर्वाण प्राप्त करना । वह निर्वाणावस्था वेशभूषा में नहीं बल्कि अनासक्त, दान्त, तपस्या, ध्यान व अप्रमत्तता से प्राप्त होती है।
- खण्ड २१, अंक १
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