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संबर्द्धक तत्त्व अलंकार है
काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयता प्रयोजका अलंकाराः ।
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से अलंकार विषयक निम्नलिखित तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है
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१. यह काव्य का आन्तरिक या अनिवार्य धर्म नहीं है, केवल बाह्य शोभादायक
है ।
२. यह अस्थिर धर्म है । इसकी अनुपस्थिति में भी कोई काव्यत्व की हानि नहीं होती है
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क्वचित्तु स्फुटालंकार विरहेऽपि न काव्यत्वहानि: ।
३. काव्य की शोभा या सौन्दर्य अलंकार पर आश्रित नहीं रहता है । ४. सत्काव्य में अलंकार की स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है ।
अलंकार और गुण :
प्रस्तुत संदर्भ में यह विचार्य है कि गुण और अलंकार दोनों एक ही हैं या परस्पर भिन्न-भिन्न । इस विषय में भारतीय आचार्यों के दो मत हैं :
१. भामह विवरणकार उद्भट का विचार है कि गुण और अलंकार में भेद मानना मिथ्या कल्पना है । लौकिक गुण और अलंकारों में तो भेद माना जा सकता है, लेकिन काव्य में ओज आदि गुण और अनुप्रास उपमादि अलंकार दोनों ही समवाय सम्बन्ध से उपस्थित होते हैं, इसलिए काव्य में उनका भेदनिरूपण नहीं हो सकता है । उद्भट ने इस तथ्य को 'गड्डलिका - प्रवाह' के द्वारा यह संकेत दिया है कि जो इसमें भेद मानते हैं वह केवल भेड़ चाल ( गड्डलिका प्रवाह ) है :
ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि
समवायवृत्त्या स्थितिरिति गडलिका प्रवाहेणैवेषां भेदः । "
२. आचार्य वामनादि का मत भिन्न है । वे काव्यशोभावर्द्धक तथा उत्पादक धर्म को गुण एवं काव्य-शोभा को अतिशयित करने वाले या बढ़ाने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं । गुण काव्य का नित्य धर्म है और अलंकार अनित्य । अलंकार के बिना काव्यत्व में कोई ह्रस्वता नहीं होगी लेकिन गुण रहित काव्य आह्लादक किंवा शोभासंवर्द्धक नहीं हो सकता है --
काव्यशोभायाः कर्त्तारोधर्माः गुणाः तदतिशय हेतवस्त्वलंकाराः । तस्या: काव्यशोभायाः अतिशयस्तदतिशयः तस्य हेतवः । पूर्वेनित्याः । "
काव्य और अलंकार
प्रस्तुत संदर्भ में काव्य में अलंकार - प्रयोग की उपयुज्यता विचार्य है । काव्य में इनका प्रयोग भावों की सहज सम्प्रेषणीयता एवं अभिव्यक्ति चारुता के लिए किया जाता है । सुन्दर एवं भव्य - विचार अलंकारों का सहयोग पाकर 'सोने में सुगंध' की तरह उत्कृष्ट एवं वल्गु सम्प्रेषणीय हो जाते हैं । ये सारस्वत महाकवि की वाणी में सहज - स्फूर्त होते हैं, बौद्धिक आयास के द्वारा उपस्थापित किये गये अलंकार नैसर्गिक
तुलसी प्रशा
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