Book Title: Tulsi Prajna 1995 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 98
________________ न दुर्जनः कार्यमजर्यमीयु स्तदीक्षणाद् बोधमिमं पुरस्थाः । एतद् भवेन् मुक्तसराढिधमैत्र्यं केषां प्रियं नो सलिलं सलीलम् ॥" उन जलाशयों के पानी को देखकर नागरिक ने यह बोध-पाठ पढ़ा कि दुर्जनों के साथ में मैत्री नहीं करनी चाहिए । यह जलराशि क्षारसिंधु का संसर्ग छोड़ने के पश्चात् किन्हें प्रिय नहीं हुई। यहां पर कौमुतिक न्याय से दुर्जन-संगति परित्याग की बात कही गई है। ८. दृष्टान्त 'दष्टान्त' का अर्थ है उदाहरण । इसमें किसी तथ्य की प्रतिष्ठापना के लिए उसके सदृश अन्य बात (उदाहरण) कही जाती है। इसमें दो वाक्य होते हैं-एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य और दोनों में साधारण धर्म भिन्न होते हैं। मम्मट के अनुसार उपमेय वाक्य उपमान वाक्य एवं उनके साधारण धर्म में यदि बिम्बप्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टान्त अलंकार होता है । यह साधर्म्य एवं वैधर्म्य दोनों प्रकार से होता है : दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिंबनम् ॥ चन्द्रालोक एवं कुवलयानन्द एवं साहित्य दर्पण में काव्य प्रकाश का ही अनुसरण किया गया है। रत्नपालचरित में अनेक स्थलों पर दृष्टान्त का सुन्दर विन्यास किया गया है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है : परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति । भवति विकलकान्तिः कौमुदीशो दिनेऽसौ ॥ अर्थात् दूसरे के घर में प्रवेश करके कौन व्यक्ति लघुता को प्राप्त नहीं होता है । चांद दिन में सूर्य के घर में प्रवेश कर कान्ति विहीन हो जाता है। यहां पर परगृह प्रवेश करने वाले व्यक्ति एवं चंद्रमा, परगृह और दिन में प्रतिबिम्ब भाव है 'पराश्रय निषिद्ध है' इस तथ्य का प्रतिपादन उद्विन्यस्त दृष्टान्त के द्वारा किया गया है। ___विरक्त-व्यक्ति अनिश्चित (अनन्त) पथ पर गमन करते हैं' इस तथ्य को प्रतिपादित करने के लिए प्रकृति जगत् से दृष्टान्त का संग्रहण किया गया है-- चकित विस्मित चित्त इलापति स्तत इयाय पथाऽव्यवसायिना । विरत चेतस० एष शुभः क्रमो न पवनो नियतं व्रजति क्वचित् ॥ राजा रात्री की बातें सुनकर चकित हो गया। वह एक अनिश्चित पथ से आगे चल पड़ा । विरक्त व्यक्तियों का यही शुभक्रम होता है। वायु कहीं भी निश्चित क्रम से नहीं चलता। यहां पर राजा और वायु में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। ऊपर विवेचित अलंकारों के अतिरिक्त उदात्त, परिकर, विनोक्ति, पर्याय, श्लेष, विशेषोक्ति व्याजोक्ति' कारणमाला आदि अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। बंर २१, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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