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" महाकवि ने इस काव्य में वर्णित अनेक घटनाओं को अपने जीवनानुभवों से संवारा है । जयकुमार के पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध जीवन से कवि का सुतरां साम्य दिखता है । बालब्रह्मचारी कवि भूरामलजी जीवन की सन्ध्या वेला में वीतराग होकर मुनि बन गये और ज्ञान सागर अन्वर्थ नाम से विख्यात हुए । उन्होंने इस काव्य के उपान्त्य प्रश्नगर्भोत्तर पद्य द्वारा अपना हृद्य प्रकाशित कर दिया है जिसमें श्रद्धा, व्रत और विद्या रत्नत्रय से युक्त मन की आकांक्षा की गई है
श्रवणीयास्तु का शुद्धा ब्रह्मविद्भिः किमर्जितम् । विद्वद्भिः का सदावन्द्या मण्डितं तैः किमस्तु नः ॥ "
इसलिये कवि ने इसे धर्म पुरुषार्थ मानकर लिखा है क्योंकि अर्थ और काम लौकिक सुख के लिए है जिन्हें महाकवि ने त्याग दिया था और जन्मान्तरीय सुख, मोक्ष में है जबकि कौए की कनीनिका की तरह धर्म ही इस लोक-परलोक दोनों में साथ देता है
आत्रिकस्थितिमती रमारती मुक्तिरूत्तर सुखात्मिका धृत्तिः । काकचक्षुरिव याति तद्वयं पौरूषं भवति तच्चचतुष्टयम् ॥
इसके व्यतिरिक्त पूर्वतन और पश्चतन संस्कृतियों के संघर्ष में भारतीय स्वातन्त्र्य को महाकवि अरूणोदय के मिस बखान कर रहा है
धिग्वारूणीमनुभवन्बिनिपातमेति
योsस्मत्सकाश उदयं विधुराप चेति ।
भास घृणापरकयेन्द्र दिशाशुदन्त
वासः परावृतममुष्य समस्तु सन्तः ॥
कि सत्पुरुषो ! पूर्व दिशा में यह जो लालिमा फैल रही है वह इसलिये है कि पूर्व ( भारत ) सोच रहा है कि चन्द्रमा (पश्चिम) जो हमारे सन्निधान से ही उदय ( समृद्ध ) हुआ है वह वारुणी मदिरा पीकर अध: पतन को प्राप्त हो रहा है । अर्थात् पाश्चात्य लोक जा रहे हैं तो उन्हें धिक्कारती पूर्व दिशा लालिमा को प्राप्त हो रही है ।
कवि की दूसरी ऐतिहासिक कल्पना देखिएश्रीभारतोक्तविभवोधृतराष्ट्र एष
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वीरं जनाय खलु कौरवमीक्षते सः । कृष्णोऽलिरत्र कलिकालसदुत्सवाय
विद्मोऽथ पद्ममपि सौरभ विस्मयाय ॥
कि सूर्य की आभा समस्त राष्ट्र में फैल गई है । वृक्षों पर बैठे पक्षी धरती पर आने को कलरव कर रहे हैं अथवा महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र केवल अपने पुत्र कौरवों को देख रहा है अर्थात् योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा हो रही है किन्तु श्रीकृष्ण पाण्डवों को विजयी बनाकर उत्सव कर रहा है अथवा काला भ्रमर कलिकाओं पर
खण्ड २१, अंक १
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