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प्रमाण हैं जिनसे ज्ञात होता है कि बहुत प्राचीन काल में ही जैन धर्म उस प्रांत में प्रतिष्ठित हो चुका था ।
आचारांग सूत्र जैन साहित्य का एक प्राचीन तथा प्रधान ग्रंथ है । प्राध्यापक कोबी ने भलीभांति सिद्ध कर दिया है कि इस ग्रंथ के बहुत से अंश ईसापूर्व तीसरी शती के पूर्व रचे गये थे । इस ग्रंथ से हमें मालूम होता है कि केवल ज्ञान लाभ करने के पहले महावीर ने कुछ दिनों तक बहुत से स्थानों का पर्यटन किया था । इस काल में आपने प्राच्य देश के सुब्बभूमि, लाढ़ और बज्जभूमि आदि स्थानों में भ्रमण किया था । उन प्रांतों के लोग बहुत ही अनुन्नत थे । उन लोगों ने महावीर पर ढेले फेंके थे, कुत्ते उकसा दिये थे और भांति-भांति से अत्याचार किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि लाढ़ ही प्राचीन राढ़ प्रांत है । बहुतों के मतानुसार सुब्बभूमि है सुम्ह प्रांत यह मालूम नहीं किया जा सकता कि बज्जभूमि कहां थी । इससे समझा जा सकता है कि महावीर के काल में बंगदेश का पश्चिम भाग था असभ्य; सो उस समय उस प्रदेश में
धर्म के प्रसार की कोई संभावना नहीं थी । वस्तुतः जैन साहित्य में जिन प्राचीन गण, शाखा तथा कुल का उल्लेख मिलता है - उनमें से किसी के भी साथ इस प्रांत के किसी स्थानीय नाम का सम्बंध नहीं निकलता है ।
कल्पसूत्र है जैन साहित्य के चतुर्थ छेदसूत्र " आचारदशांग" का अष्टम दशांग । जैनों के मतानुसार कल्पसूत्र के रचयिता हैं भद्रबाहु । भद्रबाहु, चंद्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे, क्योंकि चंद्रगुप्त उनके शिष्य बने थे, और उनका अनुसरण करते हुए दाक्षिणात्य में जाकर कठोर तपस्या करके आपने शरीर का त्याग किया था । कल्पसूत्र के तीन भाग हैं । पहला भाग है "जिन चरित्र - 1. इस अंश को महावीर का सम्पूर्ण जीवनचरित या महावीर चरित्र कहा जा सकता है । दूसरा भाग है थेरावली । इस अंश में जैन सम्प्रदाय के प्राचीन स्थविरों की जीवनी तथा उनके द्वारा प्रतिष्ठापित बहुत सारे गणों व शाखाओं का उल्लेख किया गया है । इन सब गणों, शाखाओं और गणधरों के नाम से मालूम होता है कि कल्पसूत्र का यह अंश ईसा की पहली शती के पूर्व रचित नहीं हो सकता । कल्पसूत्र के तीसरे अंश में “समाचारी" या जैन भिक्षुओं के आचारों की नियमावली का उल्लेख किया गया है ।
इस कल्पसूत्र के दूसरे अंश में बताया गया है कि भद्रबाहु के चार शिष्य थे । इन चार शिष्यों में से सर्वप्रथम थे गोदास । गोदास ने एक विशिष्ट धारा का प्रवर्तन किया था । इस धारा का नाम था " गोदासगण" । गोदासगण से चार शाखाओं का उद्भव हुआ । इन चार शाखाओं के नाम हैं ताम्रलिप्तिका "कोटिवर्षीया, पुन्ड्रवर्धनीया और दासीखर्वटिका | अगर दासीखर्वट किसी स्थान का नाम भी हो, तो यह ज्ञात नहीं होता है कि यह स्थान कहां था । जोकि पुण्ड्रवर्धन और कोटिवर्ष उत्तर वंग के दो प्रधान स्थान थे --- सो प्राचीन शिलालिपी से ही मालूम होता है । पुण्ड्रवर्धन का नाम ईसा पूर्व द्वितीय या प्रथम शती से ही मिलता है— पहले बौद्ध विनयपिटक में और दूसरे, महास्थानगढ़ में प्राप्त अशोकीय ब्राह्मी लिपि की अनुरूप लिपि में लिखित एक
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तुलसी प्रज्ञा
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