________________
बंगदेश में जैनधर्म का प्रारंभ (श्री प्रबोधचन्द्र वागची के लेख का अनुवाद)
इस विषय पर प्रायः सभी लोग सहमत हैं कि जैन सम्प्रदाय का प्राचीन नाम है "निर्ग्रन्थ" । पालि भाषा में निर्ग्रन्थ शब्द का उल्लेख "निर्ग्रन्थ", "निगण्ठ” आदि रूपों में किया गया है। इसी कारण प्राचीन पालि-साहित्य में जैनधर्म में प्रतिष्ठापयिता महावीर को "निगन्थनाथपुत्त" या "निगन्ठनाटपुत्त" का नाम दिया गया है। "नाथ" शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के "ज्ञात्रिक" शब्द से हुई है। जिस क्षत्रियकुल में महावीर पैदा हुए थे, उसका नाम था ज्ञात्रिक। महावीर को निगन्थनाथपुत्त या निर्ग्रन्थज्ञात्रिकपुत्र आख्या देने का कारण यह था कि वे ज्ञात्रिक कुल में पैदा हुए थे तथा निम्रन्थ सम्प्रदायभुक्त थे । महावीर के पहले ही निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय की प्रतिष्ठापना हुई थी।
__ अशोक की शिलालिपि में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का उल्लेख है-..."निगंथेसु पि मे कटे इमे (धंममहामाता) वियापटा होहंति ।" अशोक के धर्ममहामात्र लोग भी निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के सुख तथा सुविधाओं की ओर भी ध्यान देते थे। ओडिसा प्रांत के उदयगिरि के इलाके में कलिंगराज खारबेल का जो शिलालेख प्राप्त हुआ है, वह कदाचित ईसा पूर्व दूसरी शती का है। इस लिपि के प्रारंभ में अर्हत् तथा सिद्धों को प्रणाम बताया गया है । इस मंगलाचरण से यह अनुमान लगाया जाता है कि खारबेल थे जैन या निर्ग्रन्थ । यह अनुमान और भी निस्संदिग्ध इसलिये है कि लिपि के बीचवाले भाग में त्रिरत्न, अग्रजिन आदि शब्दों का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त ईसापूर्व पहली शती से लेकर ईसा की पहली शती तक मथुरा के आसपास जैन सम्प्रदाय की बहुत सी शिलालिपियां मिली हैं। इस लेखमाला में जैन सम्प्रदाय की तत्कालीन बहुत सी शाखाओं और कुलों का उल्लेख मिलता है और उस उल्लेख से स्पष्ट ज्ञात होता है कि बहुत दिनों से ही जैन सम्प्रदाय सुप्रतिष्ठित था और इसी प्रकार उसका प्रसार हुआ था।
खारबेल के शिलालेख को छोड़कर प्राच्यदेश में जैनधर्म के प्रचार से संबंधित दूसरा कोई प्राचीन उल्लेख आज तक प्राप्त नहीं हुआ है। पर ऐसा अनुमान असंगत नहीं होगा कि ओड़िसा प्रांत में जैनधर्म वंगदेश से ही गया था। पहाड़पुर में हाल में आविष्कृत शिलालिपि पांचवीं ईसवी की है। इस शिलालिपि से पता चलता है कि पहाड़पुर का सबसे पहला प्रतिष्ठान था निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का। वंगदेश में जैनों की दूसरी कोई प्राचीन शिलालिपि न मिलने पर भी प्राचीन जैन साहित्य में बहुत से खण्ड २१, अंक १
१११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org