Book Title: Tulsi Prajna 1995 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 108
________________ ऋतं च सत्यं च [D] डॉ० सोहनलाल पाटनी दृश्य एवं अदृश्य संसार में एक स्थायी व्यवस्था है। भले ही संसरणशील संसार निरन्तर गतिशील है परन्तु इसके संसरण में एक निश्चयात्मक व्यवस्था है। व्यवस्थात्मक गतिशीलता के कारण संसार में नित्य नवीनता दिखाई देती है और यह नवीनता ही उसमें रमणीय भाव की सृष्टि करती है । संसार की इस गतिशील रमणीय व्यवस्था को वैदिक ऋषि ने ऋत की संज्ञा दी। ऋषि ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहा : __ "मयूरान् कः चित्रयेत् कपोतान् कः कूपयेत्"। मोरों को कौन चित्रित करता है एवं कबूतरों को कलगान करने के लिए कौन प्रेरित करता है। प्रश्नकर्ता ऋषि ने ही इसका तार्किक उत्तर दिया कि "ऋतं च सत्यं च" अर्थात् सृष्टि की दृश्यमान विविधता की व्यवस्था के मूल में ऋत की विद्यमानता है एवं यह ऋत समस्त व्यवस्थाओं के मूल में सत्यरूप में प्रतिष्ठित है। इस व्यवस्था के कारण ही सृष्टि में गत्यात्मकता दिखाई देती है एवं सत्य के कारण ही गत्यात्मकता में भी उसका ध्रौव्यरूप विद्यमान रहता है। सष्टि में व्यवस्था की जो सतत प्रक्रिया चल रही है उसके मल में कोई शक्ति अवश्य है ऐसा विज्ञान भी मानता है। नास्तिक उसे केवल व्यवस्था कह कर ही चुप हो जाता है किन्तु ईश्वरवादी इसे ईश्वरीय विधान की संज्ञा देता है। इसी ईश्वरीय बिधान अथवा व्यवस्था को वेद ऋत कहता है जो बाद में सत्य स्वरूप में पर्यवसित हो गया। (१) ऋत के ऋ वर्ण को व्याकरण की दृष्टि से देखें तो यह भ्वादिगण की परस्मैपदी धातु है ऋच्छति-प्रेरयति इसके साथ क्त प्रत्यय लगा है जो स्वयं घटित क्रिया को स्थिर करता है जैसे दृष्टः पठितः गतः ॥ तो ऋत का अर्थ हुआ जाने की प्रेरणा देने की क्रिया को स्थायित्व देना । (२) ऋत शब्द की ऋ धातु जुहोत्यादिगण की परस्मैपदी धातु भी है जिसका रूप बनता है इयर्ति --- ऋत जिसके अर्थ हैं जाना, हिलना डुलना, चलाय मान करना, उत्तेजित करना। (३) ऋ धातु का एक तीसरा रूप भी है ऋणोति जो स्वादिगण की परस्मैपदी धातु है जिसके अर्थ हैं स्थिर करना, जमाना, स्थापित करना, निर्देश देना, फेरना । ऋ धातु के तीनों रूपों से बना ऋत मूल रूप से व्यवस्था को स्थायित्व देना ही खण्ड २१, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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