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“प्राकृत के बिना संस्कृत 'पंगु ' है ।"
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श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के जैनदर्शन विभाग के तत्त्वावधान में दिनांक २३ एवं २४ मार्च को आयोजित द्विदिवसीय प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला के अवसर पर बोलते हुए आचार्य श्री विद्यानन्दजी ने अपने मंगल आशीवर्चन में कहा कि "आचार्य कुन्दकुन्द की स्मृति में स्थापित यह शौरसेनी प्राकृत विषयक व्याख्यानमाला इस देश की मूलभाषा शौरसेनी प्राकृत का स्वरूप और महत्त्व रेखांकित करेगी । प्राकृत और संस्कृत- दोनों इस देश की प्राचीन भाषायें हैं। ऋषियों, मुनियों, साहित्यकारों एवं वैयाकरणों ने दोनों को भरपूर सम्मान दिया है। भले ही आज संस्कृत का बोलबाला हो, किन्तु यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी होगी कि प्राकृत के बिना संस्कृत 'पंग' है क्योंकि वेदों में प्राकृत- संस्कृत दोनों का प्रयोग है, यदि प्राकृत के शब्दों को वेदों से निकाल दिया जाये, जायेंगे । इसी तरह भास एवं कालिदास आदि के नाटकों से प्राकृत के दिये जायें, तो उनमें कुछ नहीं बचेगा, उनका स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा । हमारे देश के प्राचीन ऋषियों, मुनियों एवं मनीषियों की दोनों भाषाओं के प्रति समान दृष्टि रही, किन्तु आज दृष्टि का संतुलन परम्परा के अनुरूप नहीं है । प्राकृत के स्वरूप एवं महत्त्व को हमें नये सिरे से समझना व समझाना होगा । उन्होंने संस्कृत विद्यापीठ के मनीषियों से निवेदन किया कि "वेदों-उपनिषदों को तथा भास व कालिदास आदि के साहित्य को सही ढंग से पूर्णतया समझने व समझाने के लिए प्राकृत का अध्ययन होना चाहिए। मैं चाहता हूं कि आप इस विद्यापीठ में प्राकृत के ठोस विद्वान तैयार करें ।"
तो वे अपूर्ण रह
अंश अलग कर
[4] महावीर शास्त्री
आचार्य श्री कुन्दकुन्द की स्मृति में स्थापित इस व्याख्यानमाला के प्रथम दिन व्याख्यानमाला का उद्घाटन करते हुए विद्यापीठ के कुलाधिपति आचार्य वी० वेंकटाचल ने कहा कि "संस्कृत विद्यापीठ में प्राकृत विषयक व्याख्यानमाला का आयोजन एक सुखद अनुभूति है । मात्र विद्यापीठ में ही नहीं, अपितु देश के हर विश्वविद्यालय, महाविद्यालय एवं शिक्षण संस्थानों में प्राकृत के परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए ।" विद्यापीठ के कुलपति प्रो० विद्यापीठ की विभिन्न प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए बताया कि "शौरसेनी प्राकृत को लेकर स्थापित यह आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसे आचार्य श्री विद्यापीठ के इतिहास में जोड़ा है । उन्होंने वेदों, उपनिषदों एवं
खण्ड २१, अंक १
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अध्ययन की स्वतंत्र एवं वाचस्पति उपाध्याय ने
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